Saturday, 28 September 2019

मधुशाला


मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।


मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।

सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।

भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मत्त समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।

अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।

पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।

प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।

मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।

साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।

उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।

अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।

साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।

चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।

घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मत्त होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।

हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।

धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।

सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।

और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।

आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्दिर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।

यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।

वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।

श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हैं मंदिरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।

एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।

बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।

कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।

आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमें माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ - अदाई मधुशाला।।६५।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।

क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निश्चिंत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।

क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।

ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।

क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।

प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।

अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।

यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।

यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।

याद न आए दुखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।

गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।

ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।

मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।

और चिता पर जाये उंढेला पात्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४।

नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।

ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।

यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।

पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।

देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।

कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँख मिचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।

'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।

हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४।

प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।

मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।

किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।

उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।

साकी के पास है तनिक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।

साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।

साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, पिरश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।

जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिह्वा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।

नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।

मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।

क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।

देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।

एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।

बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँति भाँति का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।

एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।

कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।

बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।

छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।

यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।

कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।

कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।

दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हूँ, घूम रही है मधुशाला।।११८।

मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंबित करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।

किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबित प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।

मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।

मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छूंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।

कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।

'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।

कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।

जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।

हर जिव्हा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं कवि का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।

विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।

पिरिशष्ट से

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।
-- हरिवंशराय बच्चन --

Friday, 27 September 2019

बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर


बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर, क्योंकि
मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है।
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा, 
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है, 
पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है।
जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि, 
एक मुद्दत से मैंने न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले ।।


एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली,
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे।
सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से,
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला।।

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब,
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता।
शौक तो माँ-बाप के पैसो से पूरे होते हैं,
अपने पैसो से तो बस ज़रूरतें ही पूरी हो पाती हैं।।

जीवन की भाग-दौड़ में -
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है।
एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम और
आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है।।

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते-निभाते।
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते-पाते ।।

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहोत है,
और हम थक गए दर्द छुपाते-छुपाते।
"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह करता हूँ।

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से रिश्ता रखता हूँ ।
चाहता तो हु की ये दुनिया बदल दू,
पर दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में फुर्सत नहीं मिलती दोस्तों।।

महँगी से महँगी घड़ी पहन कर देख ली,
वक़्त फिर भी मेरे हिसाब से कभी ना चला।
युं ही हम दिल को साफ़ रखा करते थे,
पता नही था की, 'किमत चेहरों की होती है।।
अगर खुदा नहीं हे तो उसका ज़िक्र क्यों ?
और अगर खुदा हे तो फिर फिक्र क्यों ??

"दो बातें इंसान को अपनों से दूर कर देती हैं,
एक उसका 'अहम' और दूसरा उसका 'वहम'।
"पैसे से सुख कभी खरीदा नहीं जाता और दुःख का कोई खरीदार नहीं होता।"
मुझे जिंदगी का इतना तजुर्बा तो नहीं, पर सुना है सादगी मे लोग जीने नहीं देते।।
किसी की गलतियों को बेनक़ाब ना कर,
'ईश्वर' बैठा है, तू हिसाब ना कर ।।

  – – श्री हरिवंशराय बच्चन – –

Tuesday, 26 March 2019

मतदाता सूची में अपना नाम खोजना

अगर आपकी उम्र 18 वर्ष से ज्यादा है तो आप मतदान कर सकते हैं और जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मताधिकार का प्रयोग भी करना चाहिए। लेकिन, मतदान करने के लिए आपका नाम मतदाता सूची में जरूरी है। इस बर्ष चुनाव में करीब 1.9 करोड़ ऐसे मतदाता हैं जो पहली बार वोटिंग करेंगे। इसलिए, पहले ही पता कर लें कि आप जिस संसदीय और विधानसभा क्षेत्र में आते हैं, वहां की मतदाता सूची में आपका नाम है या नहीं। इस आर्टिकल में आपको बताने जा रहे हैं कि आप कैसे अपना नाम मतदाता सूची में जांच कर सकते हैं।

कैसे चेक करें मतदाता सूची में अपना नाम ?
1. इसके लिए पहले Electoralsearch.in पर लॉगिन करें। यहां दो तरह से मतदाता सर्च कर सकते हैं। 

2. पहले ऑप्शन में नाम, जन्म तिथि और अन्य जानकारी डालकर जानकारी हासिल कर सकते हैं। 

3. दूसरे ऑप्शन में EPIC नंबर, जिसे मतदाता पहचान पत्र क्रमांक कहते हैं, के आधार पर जानकारी हासिल कर सकते हैं। 

4. दोनों स्थिति में आपकी पूरी जानकारी स्क्रीन पर आ जाएगी. आप इसे डाउनलोड कर सकते हैं। 

5. अगर सारी जानकारी डालने के बावजूद आपके बारे में कोई जानकारी सामने नहीं आ रही है तो निर्वाचन आयोग के टोल फ्री नंबर 1800111950 पर कॉल कर सकते हैं।

इसके अलावा बाजार में कई एप्लीकेशन मौजूद हैं, जिसकी मदद से मतदाता सूची में अपना नाम चेक कर सकते हैं। गूगल प्ले स्टोर पर Voter List Online 2019 एप उपलब्ध है जिसे डाउनलोड कर लें. एप खोलने पर राज्यों का ऑप्शन सामने आएगा। आप जिस राज्य से हैं, उस राज्य को सिलेक्ट कर लें। जरूरी जानकारी भरने के बाद मतदाता सूची आपके सामने होगी। बता दें, कि अगर आपका नाम मतदाता सूची में नहीं है तो आप वोट नहीं डाल पाएंगे।

अगर आप अपना नाम वोटर लिस्ट में चेक करना चाहते हैं और अपने क्षेत्र की जानकारी विस्तार में पढ़ने के लिए अपने राज्य की वेबसाइट पर जाना चाहते हैं तो नीचे एक सूची दी गई हैं :-

प्रदेश के नाम चुनाव निर्वाचन केंद्र ऑनलाइन पोर्टल

पश्चिम-बंगाल http://ceowestbengal.nic.in/DistrictList
उत्तर-प्रदेश http://164.100.180.82/ceouptemp/RollPDF.aspx
तेलंगाना
http://ceotelangana.nic.in/
उत्तराखंड
http://election.uk.gov.in/
त्रिपुरा http://ermstripura.nic.in/ERollTrp/ERollSearch2019Draft.aspx
सिक्किम
http://www.ceosikkim.nic.in/PS_Wise_ele_roll%20w.r.t.2013/PS%20AFTER%20RATIONALISATION/Polling%20Station%20wise%20final%20Electoral%20Roll%20published%20on%2010th%20January%202018.html
तमिलनाडू http://www.elections.tn.gov.in/SR2018.aspx
पुडुचेरी https://ceopuducherry.py.gov.in/rolls/rolls.html
राजस्थान http://164.100.153.10/electoralroll/rln
पंजाब http://ceopunjab.nic.in/English/eRolls.aspx
नागालैंड
http://ceonagaland.nic.in/download-eroll-pdf
उड़ीसा
http://ceoorissa.nic.in/ViewEroll.html
मेघालय http://ceomeghalaya.nic.in/erolls/erollsummary.htm
नागालैंड
http://ceonagaland.nic.in/download-eroll-pdf
महाराष्ट्र https://ceo.maharashtra.gov.in/SearchList/
मिज़ोरम
http://mzelection.nic.in/erollpdf/
केरल http://www.ceo.kerala.gov.in/electoralrolls.html
मध्यप्रदेश http://ceomadhyapradesh.nic.in/VoterlistDR2018.aspx
लक्षद्वीप http://ceolakshadweep.gov.in/electoralrolls.html
कर्नाटक http://ceokarnatakatemp.kar.nic.in/ceo2/hm_ec.aspx
जम्मू-कश्मीर http://ceojk.nic.in/ElectionPDF/Main.aspx
हिमाचल प्रदेश
http://electionhp.gov.in/pscd/
झारखंड http://164.100.150.3/mrollpdf1/aceng.aspx
गुजरात
http://erms.gujarat.gov.in/ceo-gujarat/master/frmEPDFRoll.aspx
हरियाणा
http://ceoharyana.nic.in/?module=draftroll
दिल्ली
http://ceodelhi.gov.in/Content/Electoral_Roll.aspx
गोआ https://egov.goa.nic.in/ceogoa/appln/UIL/ElectoralRoll.aspx
दमन-एंड-द्वीप
http://ceodaman.nic.in/PHOTO%20ELECTORAL%20ROLL-%202018/MainPage.htm
चंडीगढ़ http://ceochandigarh.nic.in/webpages/Polling2.aspx
दादरा-एंड-नगर-हवेली http://ceodnh.nic.in/Electoral2018.aspx
छत्तीसगढ़ http://election.cg.nic.in/voterlist/Default.aspx
अंडमान-एंड-निकोबार http://as1.and.nic.in/newelection/ElectoralRoll.php
असम
http://ceoassam.nic.in/
बिहार http://ceo.bihar.gov.in/pdfsearch/default.aspx
आंध्राप्रदेश http://ceoaperms.ap.gov.in/Electoral_Rolls/Rolls.aspx
अरुणाचल-प्रदेश http://ceoarunachal.nic.in/electoralroll.html

Tuesday, 15 May 2018

चन्द्र वंश (सोमवंश) की उत्पत्ति

चन्द्र वंश की उत्पत्ति सहस्त्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानव में घोर संग्राम छिड़ गया। 

दानवों के गुरु शुक्राचार्य जी ने देवगुरु बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्त्रेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’ अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार ज़ोर-ज़ोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया। परीक्षित! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’ क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। 

परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरूरवा के पास चली आयी। यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था। फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुन्दर हैं- यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। राजा पुरूरवा ने कहा- सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे। 

उर्वशी ने कहा- ‘राजन! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाय? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’ परम मनस्वी पुरूरवा ने ठीक है- ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। और फिर उर्वशी से कहा- ‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करने वाला हे। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?

परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल केसर की सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- ‘उर्वशली के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है’ वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नंपुसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है’ परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े। गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)। 

परीक्षित! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे। एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा- ‘प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायँगे’। 

उर्वशी ने कहा- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायँ। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं। तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक राज तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।

राजा पुरूरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दु:ख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- ‘तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की। परीक्षित! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन में दूसरे वन में घूमते रहे। 

जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए। फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थली छोड़ी थी। जब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणिको उर्वशी, ऊपर की अरणिको पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया। उनके मन्थन से ‘जातवेदा’ नामक अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्निदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि- इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया। 

यदु वंश :: शर्मिष्ठा और देवयानी का प्रसंग :- 

किसी समय दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। उनके साथ में गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी भी थी। शर्मिष्ठा अति मानिनी तथा अति सुन्दर राजपुत्री थी; किन्तु रूप लावण्य में देवयानी भी किसी प्रकार कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर माता पार्वती के साथ उधर आ निकले। भगवान शंकर को आते देखकर वे सभी कन्याएँ लज्जावश दौड़ कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रतावश शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिये। इस पर देवयानी ने क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से कहा कि एक असुर पुत्री होकर उसने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण कर उसका अपमान किया है। देवयानी ने शर्मिष्ठा को इस प्रकार से और भी अनेक अपशब्द कहे। देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् दैववश राजा ययाति शिकार खेलते हुये वहाँ पर आ पहुँचे। अपनी प्यास बुझाने के लिये वे कुएँ के निकट गये और उस कुएँ में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। उन्होंने देवयानी के देह को ढँकने के लिये अपना दुपट्टा उस पर डाल दिया और उसका हाथ पकड़कर, उसे कुएँ से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेम पूर्वक राजा ययाति से कहा कि उन्होंने उसका हाथ पकड़ा था। अतः उसने उनको अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया था। उसने बताया कि वो गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी और एक ब्राह्मण पुत्री होने के बावजूद वृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण, उसका विवाह किसी ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता था।देव गुरु वृहस्पति के पुत्र कच गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रह कर सञ्जीवनी विद्या सीखने आये थे। देवयानी ने उन पर मोहित होकर उनके सामने अपना प्रणय निवेदन किया था। किन्तु गुरुपुत्री होने के कारण कच ने उसके प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर दिया। इस पर देवयानी ने रुष्ट होकर कच को अपनी पढ़ी हुई विद्या को भूल जाने का शाप दिया। कच ने भी देवयानी को शाप दे दिया कि उसे कोई भी ब्राह्मण पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा।इसलिये उसने आग्रह किया कि ययाति प्रारब्ध समझ कर उसे पत्नी स्वीकार कर लें। ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।


देवयानी वहाँ से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किये हुये कर्म पर शुक्राचार्य को बहुत क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गये। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा, अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से अनुनय-विनय करने लगे। इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने से शुक्राचार्य का क्रोध कुछ शान्त हुआ और वे बोले कि वे उसके उत्तर से संतुष्ट थे। परन्तु उन्हें देवयानी को भी प्रसन्न करना जरूरी था।वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने उससे कहा कि वे उसकी प्रसन्नता के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। देवयानी ने उनकी पुत्री शर्मिष्ठा को दासी के रूप में माँग लिया। राक्षस जाति और अपने परिवार पर आये संकट को टालने के लिये शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।

शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ, उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। कुछ काल उपरान्त देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्रोत्पत्ति की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया, जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्य, अनु तथा पुरु हुये। जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के सम्बंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के घर चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर उनसे कहा कि वे स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि तथा क्रूर थे। इसलिये शुक्राचार्य ने उन्हें तत्काल वृद्धावस्था को प्राप्त होने का श्राप दे दिया। उनके शाप से भयभीत होकर राजा ययाति अनुनय करते हुये दैत्य शुक्राचार्य से बोले कि उनकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुये, उनकी तृप्ति नहीं हुई थी। इस शाप में तो उनकी पुत्री का भी अहित था। तब विचार कर के गुरु शुक्रचार्य ने कहा कि कोई उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो वे उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते थे। 

इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से कहा कि वो अपने नाना के द्वारा दी गई उनकी वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था उन्हें दे दे। यदु ने आदर पूर्वक कहा कि असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर वो जीवित नहीं रहना चाहता था। ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की माँग की। सबसे छोटे पुत्र पुरु को छोड़ कर अन्य पुत्रों ने उनकी माँग को स्वीकार नहीं किया। पुरु ने अपने पिता को अपनी युवावस्था सहर्ष प्रदान कर दी। पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा कि उसने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः ययाति ने यदु को राज्याधिकार से वंचित करके राज्य पुरु को दे दिया। ययाति ने श्राप भी दिया कि उसके वंशज सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेंगे। राजा ययाति के इसी पुत्र यदु के वंश में भगवान् श्री कृष्ण का अवतार हुआ तथा शिशुपाल ने धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ययाति के इसी शाप का उल्लेख किया था।

राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।

कौरवों के जन्म की कथा :- 

महर्षि वेदव्यास को धृतराष्ट्र से बहुत प्रेम था। उनके हस्तिनापुर आने पर गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की; जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।

महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

पांडवों के जन्म की कथा :- 

एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों-कुन्ती तथा माद्री, के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक ऋषि और उनकी पत्नी को मृग के रूप में मैथुनरत देखा। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया कि उसने उन्हें मैथुन के समय बाण मारा था; अतः जब कभी भी वो मैथुनरत होंगे, उनकी मृत्यु हो जायेगी।इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले कि वो अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के वन में ही रहेंगे। दोनों ही रानियों ने पाण्डु ने उनके साथ वन में अपने साथ रहने की इच्छा जाहिर कि जिसे पाण्डु ने स्वीकार कर लिया। 

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा कि कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता। अतः वो उनको अपने साथ ले जाने में असमर्थ थे। 

ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी कुन्ती से बोले कि उनका जन्म लेना ही वृथा हो रहा क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता था। कुन्ती ने कहा उन्हें दुर्वासा ऋषि ने ऐसा मन्त्र प्रदान कियाथा जिससे वो किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था। परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्नि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोग की प्राप्ति की।

चन्द्र की उत्पत्ति :- 

तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है जिसका नाम सोम है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियाँ थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियाँ दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियाँ भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई। ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि ऋषि की तपस्या के दौरान उनकी आंखों से जल बहने लगा जिसके कारण दसों दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज ग्रहण न कर पाने के कारण दिशाओं ने उसका त्याग कर दिया। लेकिन बाद में ब्रह्मा ने संभाला और उसे लेकर वे दूर चले गए। उसी तेज पूर्ण बालक का नाम चंद्र रखा गया। औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया।

चन्द्र ने हजारों वर्ष तक विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। भगवान् शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।

उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था।

मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और चंद्रवंश चला। पुरुरवा ने ‘प्रतिष्ठान’ में अपनी राजधानी स्थापित की। पुरुरवा व अप्सरा उर्वशी से कई पुत्र हुए। सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकार मिला। दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज (कान्यकुब्ज) में राज्य की स्थापना की। अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ। नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना।

पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाए।

इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजा नहुष आयु के पहले पुत्र नहुष ने यति, ययाति, शर्याति, उत्तर, पर, अयाति और नियति सात पुत्र हुए। ययाति राजा बना और उसने अपनी पहली पत्नी से द्रुह्य, अनु और पुरु तथा दूसरी देवयानी से यदु और तुरवशु पुत्र उत्पन्न किए।

याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे; इसलिये राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।ययाति बिरजा के गर्भ से उत्पन्न महाराज नहुष के पुत्र थे। इनके पिता नहुष को अगस्त आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया; क्योंकि उसने इंद्रासन के साथ-साथ इन्द्राणी शची को भी पाने की अभिलाषा-लालसा में सप्तऋषियों को पालकी ढ़ोने में लगा दिया, जिसमें वो स्वयं सवार था और सर्प-सर्प (शीघ्र-चलो, शीघ्र चलो) कहकर, उनको पैर से ऐड़ लगाई और उन्हें दुत्कारा। ययाति के ज्येष्ठ भ्राता ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया, तब ययाति राजा के पद पर आसीन हुए। उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को, चार दिशाओं का शासक नियुक्त कर दिया। उन्होंने राक्षस-दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से विवाह किया। राक्षस राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जिसे देवयानी ने वृषपर्वा से दासी के रूप में प्राप्त किया था, से भी उन्होंने तीन पुत्र पैदा किये। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए। यदु के नाम से यादव वंश चला। 

तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में, यदु को दक्षिण दिशा में, तुर्वसु को पश्चिम दिशा में तथा अनु को उत्तर दिशा का शासक बना दिया। पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर, उसके सब बड़े भाईयों को उसके अधीन कर स्वयम वन में तपस्या करने चले गए। उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए। देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान् का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गई। 


चन्द्र वंश :- चन्द्रवंश क्षत्रिय ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र अत्री की संतान हैं। महर्षि अत्री की धर्मपत्नी अनुसूया का बड़ा पुत्र सोम था। सोम का वंश होने से यह सोम या चन्द्रवंश कहलाया।ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि ऋषि की तपस्या के दौरान उनकी आंखों से जल बहने लगा जिसके कारण दसों दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज ग्रहण न कर पाने के कारण दिशाओं ने उसका त्याग कर दिया। लेकिन बाद में ब्रह्मा जी ने संभाला और उसे लेकर वे दूर चले गए। उसी तेज पूर्ण बालक का नाम चंद्र रखा गया। औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया।

चन्द्र ने हजारों वर्ष तक भगवान् विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। भगवान् शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।

उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था।

मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और चंद्रवंश चला। पुरुरवा ने प्रतिष्ठान में अपनी राजधानी स्थापित की। पुरुरवा व अप्सरा उर्वशी से कई पुत्र हुए। सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकार मिला। दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज (-कान्यकुब्ज) में राज्य की स्थापना की। अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ। नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना।

पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाए।

 सोम या चन्द्र का पुत्र बुध था, जिसका विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ था।  बुध ने अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर को बनाया था, जो चिरकाल तक इस की राजधानी बना रहा।  बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ जिसने उर्वशी नाम की अप्सरा से आयु नामक पुत्र उत्पन्न किया। 

आयु का पुत्र नहुष और नहुष का पुत्र ययाति। ययाति की दो पत्निय थी। इनकी एक रानी श्मिष्ठा जो दानव राज वृषपर्वा की पुत्री थी।  उसके तीन पुत्र हुए  (1). द्र्हू, (2).  पुरु (-चन्द्रवंशीय रजा हुए) और (3). अनु . ययाति की दूसरी रानी देवयानि जो की असुर गुरु शुकर्चार्य की पुत्री थी, जिससे दो पुत्र हुए। (1). यदु,  (2). दुर्व्रसू। 

चन्द्र वंशी नरेशों की नामावली :-
(1). ऋषि अत्री से उत्पत्ति, (2). सोम या चन्द्र (3). बुध, (4). पुरुरवा, (5). आयु, (6). नहुष, (7). ययाति, (8). पुरु, (9). जनमेजय, (10). प्रचिनवान, (11). प्रवीर, (12). मनस्यु, (13). अभयद, (14). सुघु, (15). बहुगत,(16). संयति,(17). अहंयाति, (18). रोद्राशव, (19). त्रतेयु, (20). मतनार, (21). तसु, (22). एलिन, (23). दुष्यंत, (24). भरत, (25). मन्यु, (26). वृहक्ष्त्र, (27). सुहोत्र, (28). हस्ती, (29). अजमीढ़, (30). ऋश, (31). संवरण, (32). कुरु, (33). जन्हु, (34). जन्मेजय, (35). सुरथ, (36). विदुरथ, (37). सार्वभोम, (38). जयत्सेन, (39). आराधित, (40). अयुतायु, (41). अक्रोधन, (42). देवातिथि, (43). ऋश, (44). भीमसेन, (45). दिलीप, (46). प्रतीप, (48). शांतनु, (49). विचित्रवीर्य, पाण्डु, (50). युधिष्ठर, (51). परीक्षित, (52). जन्मजय, (53). शतानीक, (54). सह्स्त्रनिक, (55).अश्वमेधदत, (56). अधिसिभ्कृष्ण, (57). निच्शु, (58). उष्ण, (59). चित्ररथ, (60). शुचिरथ, (61). व्र्सिमान, (62). सुषेण, (63). सुनीथ, (64). रुच, (65). सुकिबल, (66). सुखीबल, (67). सुनय, (68). मेधावी, (70). न्र्पंजय, (71). म्रद। 

28 वें राजा हस्ती ने हस्तिनापुर बसाकर एस अपनी राजधानी बनाया ! इसके बाद कुरु ने कुरुक्षेत्र तक अपने राज्य का विस्तार किया। 

ययाति के पुत्रो से प्रारम्भ वंश :- 
(1). यदु से यादव, (2). तुर्वसु से यवन (-Europeans, present day Jews and Christians), (3). दुह्यु से भोज, (4). अनु से मल्लेक्ष (-Present day Muslims), (5). पुरु से पौरव।

यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान चम्बल क्षेत्र, वेववती (-वेतवा) और शुक्तिमती (-केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था।

श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र :- सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य यादव वन्शावली (प्रमुख यादव राजवंश) इस प्रकार है:-परमपिता नारायण, ब्रह्मा, अत्रि, चन्द्रमा (चन्द्रमा से चद्र वंश चला), बुध, पुरुरवा, आयु, नहुष, ययाति, यदु (यदु से यादव वंश चला), क्रोष्टु, वृजनीवन्त, स्वाहा (स्वाति), रुषाद्धगु, चित्ररथ, शशविन्दु, पृथुश्रवस, अन्तर (उत्तर), सुयग्य, उशनस, शिनेयु, मरुत्त, कन्वलवर्हिष, रुक्मकवच, परावृत्ज्या, मघ, विदर्भ्कृ, त्भीम, कुन्ती, धृष्ट, निर्वृति, विदूरथ, दशाह, व्योमन, जीमूत, विकृति, भीमरथ, रथवर, दशरथ, येकादशरथ, शकुनि, करंभ, देवरात, देवक्षत्र, देवन, मधु, पुरूरवस, पुरुद्वन्त, जन्तु (अन्श), सत्वन्तु, भीमसत्व .भीमसत्व के दो पुत्र थे (1). कुकुर और (2). देवमीढ़-देविमूढस। कुकुर से अन्धक और देवमीढ़ से वृष्णि वंश चला। 

भीमसत्व के बाद यादव राजवंशो की प्रधान शाखा से दो मुख्य शखाएँ हो गईं :- पहला अन्धक वंश और दूसरा वृष्णि वंश। अन्धक वंश में कंस का जन्म हुआ तथा वृष्णि वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था।

अन्धक वंश :- (1). कुकुर और देविमूढस (देविमूढस के दो रानिया थीं). (2). धृष्ट, (3) कपोतरोपन, (4). विलोमान, (5). अनु, (6). दुन्दुभि, (7). अभिजित, (8). पुनर्वसु, (9). आहुक, (10-i). उग्रसेन का यक्ष से उत्त्पन्न नाजायज़ पुत्र कंस और पुत्री देवकी, देवकी का विवाह वासुदेव जी से हुआ जिनसे भगवान् श्री कृष्ण उतपन्न हुए , (10-ii). देवक का पुत्र शूर।

वृष्णि वंश :- देविमूढस (-देवमीढ़) के दो रानियाँ थीें। पहली मदिषा और दूसरी वैश्यवर्णा। पहली रानी मदिषा के गर्भ से शूर उत्पन्न हुए। शूर की पत्नी भोज राजकुमारी से दस पुत्र तथा पांच पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। (1). वासुदेव से भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी, (2). देवभाग से उद्धव नामक पुत्र, (3). देवश्रवा से शत्रुघ्न (-एकलव्य) नामक पुत्र, (4). अनाधृष्टि से यशस्वी नामक पुत्र हुआ, (5). कनवक से तन्द्रिज और तन्द्रिपाल नामक दो पुत्र, (6). वत्सावान के गोद लिए पुत्र कौशिक थे, (7). गृज्जिम से वीर और अश्वहन नामक दो पुत्र हुए, (8). श्याम अपने छोटे भाई शमीक को पुत्र मानते थे, (9). शमीक के कोइ संतान नही थी, (10). गंडूष के गोद लिए हुए चार पुत्र थे और इनके अतिरिक्त शूर के पांच कन्याए भी उत्पन्न हुई थी जिनके नाम उनके पुत्रों सहित :: (1). पृथुकी से दन्तवक्र (-पूर्व जन्म में कुम्भकर्ण, हिरण्याक्ष और भगवान् श्री विष्णु के वैकुण्ठ लोक का द्वारपाल विजय) नामक पुत्र, (2). पृथा (कुंती) से :- युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन नामक तीन पुत्र, (3). श्रुतदेवा से :- जगृहु नामक पुत्र, (4). श्रुतश्रवा से :- श्रुतश्र।  

यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के एक पौत्र का नाम था हैहय। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए। हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे। बाकी सब युद्ध करते हुए भगवान् परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे :- जयध्वज, शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। जयध्वज के तालजंघ नामक एक पुत्र था। तालजंघ के वंशज तालजंघ क्षत्रिय कहलाये। तालजंघ के भी सौ पुत्र थे। उनमें से अधिकांश को राजा सगर ने मार डाला था। तालजंघ के जीवित बचे पुत्रों में एक का नाम था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र के मधु नामक एक पुत्र हुआ। मधु के वंशज माधव कहलाये। मधु के कई पुत्र थे। उनमें से एक का नाम था वृष्णि। वृष्णि के वंशज वाष्र्णेव कहलाये। 

यदु के दूसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के बाद उसकी बारहवीं पीढी में विदर्भ नामक एक राजा हुए। विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे। विदर्भ के तीसरे वंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु। बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए। विदर्भ के दुसरे पुत्र क्रथ के कुल में आगे चल सात्वत नामक एक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वत वंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे :- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देववृक्ष, महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। भगवान् श्री कृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था। इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की।

अन्धक के वंशज अन्धक वंशी यादव कहलाये। अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि। वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ। अनु के पुत्र का नाम था, अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ। पुनर्वसु के दो संतानें थीं :- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव, देववर्धन नामक चार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।

सात्वत के पुत्रो से जो वंश परंपरा चली उनमें सर्वाधिक विख्यात वंश का नाम है वृष्णि-वंश। इसमें सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया। वृष्णि के दो रानियाँ थीं :- एक नाम था गांधारी और दूसरी का माद्री। माद्री के एक देवमीढुष नामक एक पुत्र हुआ। देवमीढुष के भी मदिषा और वैश्यवर्णा नाम की दो रानियाँ थी।

देवमीढुष की बड़ी रानी मदिषा के गर्भ दस पुत्र हुए, उनके नाम थे :- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सुजग्य, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। उनमें वसुदेव जी सबसे बड़े थे। वसुदेव के जन्म के समय देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से पुष्प की वर्षा की थी और आनक तथा दुन्दुभी का वादन किया था। इस कारण वसुदेव जी को आनकदुन्दु भी कहा जाता है। 

श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है, उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से, देवकी आदि सात पत्नियाँ अन्धक वंश से तथा सुतनु तथा वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली, दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्य वंश से थीं। उग्रसेन के बड़े भाई देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थीं। उन सबका विवाह वसुदेव जी से हुआ था। देवक की छोटी कन्या देवकी के विवाहोपरांत उसका चचेरा भाई कंस जब रथ में बैठा कर, उन्हें घर छोड़ने जा रहा था, तो मार्ग में आकाशवाणी हुई कि कंस जिसे वह बहुत ज्यादा प्यार से ससुराल पहुँचाने जा रहा था, उसी के आठवे पुत्र के हाथों उसकी मृत्यु निश्चित थी। देववाणी सुनकर कंस अत्यंत भयभीत हो गया और वसुदेव तथा देवकी को कारागार में बंद कर दिया। महायशस्वी भगवान् श्री कृष्ण का जन्म इसी कारागार में हुआ था। भगवान् श्री कृष्ण ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया और वसुदेव जी को भगवान् श्री कृष्ण के पिता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। वसुदेव के एक पुत्र का नाम बलराम था। बलराम जी भगवान् श्री कृष्ण के बड़े भाई थे। उनका जन्म वसुदेव की एक अन्य पत्नी रोहिणी के गर्भ से हुआ था। रोहिणी गोकुल में वसुदेव के चचेरे भाई नन्द के यहाँ गुप्त रूप से रह रही थी। 

यादवो ने कालान्तर मे अपने केन्द्र दशार्न, अवान्ति, विदर्भ् एवं महिष्मती मे स्थापित कर लिए। बाद मे मथुरा और द्वारिका यादवो की शक्ति के महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली केन्द्र बने। इसके अतिरिक्त शाल्व मे भी यादवों की शाखा स्थापित हो गई। मथुरा महाराजा उग्रसेन के अधीन था और द्वारिका वसुदेव के। महाराजा उग्रसेन का पुत्र कंस था और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण थे।

देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ। पर्जन्य के नन्द सहित नौ पुत्र हुए, जिनके नाम थे :- धरानन्द, ध्रुवनन्द, उपनंद, अभिनंद, सुनंद, कर्मानन्द, धर्मानंद, नन्द और वल्लभ। नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। नन्द और उनकी पत्नी यशोदा ने गोकुल में भगवान् श्री कृष्ण का पालन-पोषण किया। इस कारण वह आज भी परम यशस्वी और श्रद्धेय हैं। वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों चचेरे भाई थे।