Tuesday, 15 May 2018

चन्द्र वंश (सोमवंश) की उत्पत्ति

चन्द्र वंश की उत्पत्ति सहस्त्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानव में घोर संग्राम छिड़ गया। 

दानवों के गुरु शुक्राचार्य जी ने देवगुरु बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्त्रेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’ अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार ज़ोर-ज़ोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया। परीक्षित! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’ क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। 

परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरूरवा के पास चली आयी। यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था। फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुन्दर हैं- यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। राजा पुरूरवा ने कहा- सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे। 

उर्वशी ने कहा- ‘राजन! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाय? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’ परम मनस्वी पुरूरवा ने ठीक है- ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। और फिर उर्वशी से कहा- ‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करने वाला हे। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?

परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल केसर की सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- ‘उर्वशली के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है’ वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नंपुसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है’ परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े। गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)। 

परीक्षित! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे। एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा- ‘प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायँगे’। 

उर्वशी ने कहा- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायँ। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं। तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक राज तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।

राजा पुरूरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दु:ख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- ‘तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की। परीक्षित! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन में दूसरे वन में घूमते रहे। 

जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए। फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थली छोड़ी थी। जब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणिको उर्वशी, ऊपर की अरणिको पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया। उनके मन्थन से ‘जातवेदा’ नामक अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्निदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि- इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया। 

यदु वंश :: शर्मिष्ठा और देवयानी का प्रसंग :- 

किसी समय दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। उनके साथ में गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी भी थी। शर्मिष्ठा अति मानिनी तथा अति सुन्दर राजपुत्री थी; किन्तु रूप लावण्य में देवयानी भी किसी प्रकार कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर माता पार्वती के साथ उधर आ निकले। भगवान शंकर को आते देखकर वे सभी कन्याएँ लज्जावश दौड़ कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रतावश शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिये। इस पर देवयानी ने क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से कहा कि एक असुर पुत्री होकर उसने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण कर उसका अपमान किया है। देवयानी ने शर्मिष्ठा को इस प्रकार से और भी अनेक अपशब्द कहे। देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएँ में धकेल दिया।

शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् दैववश राजा ययाति शिकार खेलते हुये वहाँ पर आ पहुँचे। अपनी प्यास बुझाने के लिये वे कुएँ के निकट गये और उस कुएँ में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। उन्होंने देवयानी के देह को ढँकने के लिये अपना दुपट्टा उस पर डाल दिया और उसका हाथ पकड़कर, उसे कुएँ से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेम पूर्वक राजा ययाति से कहा कि उन्होंने उसका हाथ पकड़ा था। अतः उसने उनको अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया था। उसने बताया कि वो गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी और एक ब्राह्मण पुत्री होने के बावजूद वृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण, उसका विवाह किसी ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता था।देव गुरु वृहस्पति के पुत्र कच गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रह कर सञ्जीवनी विद्या सीखने आये थे। देवयानी ने उन पर मोहित होकर उनके सामने अपना प्रणय निवेदन किया था। किन्तु गुरुपुत्री होने के कारण कच ने उसके प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर दिया। इस पर देवयानी ने रुष्ट होकर कच को अपनी पढ़ी हुई विद्या को भूल जाने का शाप दिया। कच ने भी देवयानी को शाप दे दिया कि उसे कोई भी ब्राह्मण पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा।इसलिये उसने आग्रह किया कि ययाति प्रारब्ध समझ कर उसे पत्नी स्वीकार कर लें। ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।


देवयानी वहाँ से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किये हुये कर्म पर शुक्राचार्य को बहुत क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गये। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा, अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से अनुनय-विनय करने लगे। इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने से शुक्राचार्य का क्रोध कुछ शान्त हुआ और वे बोले कि वे उसके उत्तर से संतुष्ट थे। परन्तु उन्हें देवयानी को भी प्रसन्न करना जरूरी था।वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने उससे कहा कि वे उसकी प्रसन्नता के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। देवयानी ने उनकी पुत्री शर्मिष्ठा को दासी के रूप में माँग लिया। राक्षस जाति और अपने परिवार पर आये संकट को टालने के लिये शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।

शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ, उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। कुछ काल उपरान्त देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्रोत्पत्ति की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया, जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्य, अनु तथा पुरु हुये। जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के सम्बंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के घर चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर उनसे कहा कि वे स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि तथा क्रूर थे। इसलिये शुक्राचार्य ने उन्हें तत्काल वृद्धावस्था को प्राप्त होने का श्राप दे दिया। उनके शाप से भयभीत होकर राजा ययाति अनुनय करते हुये दैत्य शुक्राचार्य से बोले कि उनकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुये, उनकी तृप्ति नहीं हुई थी। इस शाप में तो उनकी पुत्री का भी अहित था। तब विचार कर के गुरु शुक्रचार्य ने कहा कि कोई उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो वे उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते थे। 

इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से कहा कि वो अपने नाना के द्वारा दी गई उनकी वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था उन्हें दे दे। यदु ने आदर पूर्वक कहा कि असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर वो जीवित नहीं रहना चाहता था। ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की माँग की। सबसे छोटे पुत्र पुरु को छोड़ कर अन्य पुत्रों ने उनकी माँग को स्वीकार नहीं किया। पुरु ने अपने पिता को अपनी युवावस्था सहर्ष प्रदान कर दी। पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा कि उसने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः ययाति ने यदु को राज्याधिकार से वंचित करके राज्य पुरु को दे दिया। ययाति ने श्राप भी दिया कि उसके वंशज सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेंगे। राजा ययाति के इसी पुत्र यदु के वंश में भगवान् श्री कृष्ण का अवतार हुआ तथा शिशुपाल ने धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ययाति के इसी शाप का उल्लेख किया था।

राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।

कौरवों के जन्म की कथा :- 

महर्षि वेदव्यास को धृतराष्ट्र से बहुत प्रेम था। उनके हस्तिनापुर आने पर गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की; जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।

महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

पांडवों के जन्म की कथा :- 

एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों-कुन्ती तथा माद्री, के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक ऋषि और उनकी पत्नी को मृग के रूप में मैथुनरत देखा। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया कि उसने उन्हें मैथुन के समय बाण मारा था; अतः जब कभी भी वो मैथुनरत होंगे, उनकी मृत्यु हो जायेगी।इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले कि वो अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के वन में ही रहेंगे। दोनों ही रानियों ने पाण्डु ने उनके साथ वन में अपने साथ रहने की इच्छा जाहिर कि जिसे पाण्डु ने स्वीकार कर लिया। 

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा कि कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता। अतः वो उनको अपने साथ ले जाने में असमर्थ थे। 

ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी कुन्ती से बोले कि उनका जन्म लेना ही वृथा हो रहा क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता था। कुन्ती ने कहा उन्हें दुर्वासा ऋषि ने ऐसा मन्त्र प्रदान कियाथा जिससे वो किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था। परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्नि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोग की प्राप्ति की।

चन्द्र की उत्पत्ति :- 

तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है जिसका नाम सोम है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियाँ थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियाँ दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियाँ भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई। ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि ऋषि की तपस्या के दौरान उनकी आंखों से जल बहने लगा जिसके कारण दसों दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज ग्रहण न कर पाने के कारण दिशाओं ने उसका त्याग कर दिया। लेकिन बाद में ब्रह्मा ने संभाला और उसे लेकर वे दूर चले गए। उसी तेज पूर्ण बालक का नाम चंद्र रखा गया। औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया।

चन्द्र ने हजारों वर्ष तक विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। भगवान् शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।

उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था।

मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और चंद्रवंश चला। पुरुरवा ने ‘प्रतिष्ठान’ में अपनी राजधानी स्थापित की। पुरुरवा व अप्सरा उर्वशी से कई पुत्र हुए। सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकार मिला। दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज (कान्यकुब्ज) में राज्य की स्थापना की। अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ। नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना।

पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाए।

इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजा नहुष आयु के पहले पुत्र नहुष ने यति, ययाति, शर्याति, उत्तर, पर, अयाति और नियति सात पुत्र हुए। ययाति राजा बना और उसने अपनी पहली पत्नी से द्रुह्य, अनु और पुरु तथा दूसरी देवयानी से यदु और तुरवशु पुत्र उत्पन्न किए।

याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे; इसलिये राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।ययाति बिरजा के गर्भ से उत्पन्न महाराज नहुष के पुत्र थे। इनके पिता नहुष को अगस्त आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया; क्योंकि उसने इंद्रासन के साथ-साथ इन्द्राणी शची को भी पाने की अभिलाषा-लालसा में सप्तऋषियों को पालकी ढ़ोने में लगा दिया, जिसमें वो स्वयं सवार था और सर्प-सर्प (शीघ्र-चलो, शीघ्र चलो) कहकर, उनको पैर से ऐड़ लगाई और उन्हें दुत्कारा। ययाति के ज्येष्ठ भ्राता ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया, तब ययाति राजा के पद पर आसीन हुए। उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को, चार दिशाओं का शासक नियुक्त कर दिया। उन्होंने राक्षस-दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से विवाह किया। राक्षस राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जिसे देवयानी ने वृषपर्वा से दासी के रूप में प्राप्त किया था, से भी उन्होंने तीन पुत्र पैदा किये। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए। यदु के नाम से यादव वंश चला। 

तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में, यदु को दक्षिण दिशा में, तुर्वसु को पश्चिम दिशा में तथा अनु को उत्तर दिशा का शासक बना दिया। पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर, उसके सब बड़े भाईयों को उसके अधीन कर स्वयम वन में तपस्या करने चले गए। उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए। देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान् का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गई। 


चन्द्र वंश :- चन्द्रवंश क्षत्रिय ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र अत्री की संतान हैं। महर्षि अत्री की धर्मपत्नी अनुसूया का बड़ा पुत्र सोम था। सोम का वंश होने से यह सोम या चन्द्रवंश कहलाया।ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि ऋषि की तपस्या के दौरान उनकी आंखों से जल बहने लगा जिसके कारण दसों दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज ग्रहण न कर पाने के कारण दिशाओं ने उसका त्याग कर दिया। लेकिन बाद में ब्रह्मा जी ने संभाला और उसे लेकर वे दूर चले गए। उसी तेज पूर्ण बालक का नाम चंद्र रखा गया। औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया।

चन्द्र ने हजारों वर्ष तक भगवान् विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। भगवान् शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।

उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था।

मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और चंद्रवंश चला। पुरुरवा ने प्रतिष्ठान में अपनी राजधानी स्थापित की। पुरुरवा व अप्सरा उर्वशी से कई पुत्र हुए। सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकार मिला। दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज (-कान्यकुब्ज) में राज्य की स्थापना की। अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ। नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना।

पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाए।

 सोम या चन्द्र का पुत्र बुध था, जिसका विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ था।  बुध ने अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर को बनाया था, जो चिरकाल तक इस की राजधानी बना रहा।  बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ जिसने उर्वशी नाम की अप्सरा से आयु नामक पुत्र उत्पन्न किया। 

आयु का पुत्र नहुष और नहुष का पुत्र ययाति। ययाति की दो पत्निय थी। इनकी एक रानी श्मिष्ठा जो दानव राज वृषपर्वा की पुत्री थी।  उसके तीन पुत्र हुए  (1). द्र्हू, (2).  पुरु (-चन्द्रवंशीय रजा हुए) और (3). अनु . ययाति की दूसरी रानी देवयानि जो की असुर गुरु शुकर्चार्य की पुत्री थी, जिससे दो पुत्र हुए। (1). यदु,  (2). दुर्व्रसू। 

चन्द्र वंशी नरेशों की नामावली :-
(1). ऋषि अत्री से उत्पत्ति, (2). सोम या चन्द्र (3). बुध, (4). पुरुरवा, (5). आयु, (6). नहुष, (7). ययाति, (8). पुरु, (9). जनमेजय, (10). प्रचिनवान, (11). प्रवीर, (12). मनस्यु, (13). अभयद, (14). सुघु, (15). बहुगत,(16). संयति,(17). अहंयाति, (18). रोद्राशव, (19). त्रतेयु, (20). मतनार, (21). तसु, (22). एलिन, (23). दुष्यंत, (24). भरत, (25). मन्यु, (26). वृहक्ष्त्र, (27). सुहोत्र, (28). हस्ती, (29). अजमीढ़, (30). ऋश, (31). संवरण, (32). कुरु, (33). जन्हु, (34). जन्मेजय, (35). सुरथ, (36). विदुरथ, (37). सार्वभोम, (38). जयत्सेन, (39). आराधित, (40). अयुतायु, (41). अक्रोधन, (42). देवातिथि, (43). ऋश, (44). भीमसेन, (45). दिलीप, (46). प्रतीप, (48). शांतनु, (49). विचित्रवीर्य, पाण्डु, (50). युधिष्ठर, (51). परीक्षित, (52). जन्मजय, (53). शतानीक, (54). सह्स्त्रनिक, (55).अश्वमेधदत, (56). अधिसिभ्कृष्ण, (57). निच्शु, (58). उष्ण, (59). चित्ररथ, (60). शुचिरथ, (61). व्र्सिमान, (62). सुषेण, (63). सुनीथ, (64). रुच, (65). सुकिबल, (66). सुखीबल, (67). सुनय, (68). मेधावी, (70). न्र्पंजय, (71). म्रद। 

28 वें राजा हस्ती ने हस्तिनापुर बसाकर एस अपनी राजधानी बनाया ! इसके बाद कुरु ने कुरुक्षेत्र तक अपने राज्य का विस्तार किया। 

ययाति के पुत्रो से प्रारम्भ वंश :- 
(1). यदु से यादव, (2). तुर्वसु से यवन (-Europeans, present day Jews and Christians), (3). दुह्यु से भोज, (4). अनु से मल्लेक्ष (-Present day Muslims), (5). पुरु से पौरव।

यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान चम्बल क्षेत्र, वेववती (-वेतवा) और शुक्तिमती (-केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था।

श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र :- सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य यादव वन्शावली (प्रमुख यादव राजवंश) इस प्रकार है:-परमपिता नारायण, ब्रह्मा, अत्रि, चन्द्रमा (चन्द्रमा से चद्र वंश चला), बुध, पुरुरवा, आयु, नहुष, ययाति, यदु (यदु से यादव वंश चला), क्रोष्टु, वृजनीवन्त, स्वाहा (स्वाति), रुषाद्धगु, चित्ररथ, शशविन्दु, पृथुश्रवस, अन्तर (उत्तर), सुयग्य, उशनस, शिनेयु, मरुत्त, कन्वलवर्हिष, रुक्मकवच, परावृत्ज्या, मघ, विदर्भ्कृ, त्भीम, कुन्ती, धृष्ट, निर्वृति, विदूरथ, दशाह, व्योमन, जीमूत, विकृति, भीमरथ, रथवर, दशरथ, येकादशरथ, शकुनि, करंभ, देवरात, देवक्षत्र, देवन, मधु, पुरूरवस, पुरुद्वन्त, जन्तु (अन्श), सत्वन्तु, भीमसत्व .भीमसत्व के दो पुत्र थे (1). कुकुर और (2). देवमीढ़-देविमूढस। कुकुर से अन्धक और देवमीढ़ से वृष्णि वंश चला। 

भीमसत्व के बाद यादव राजवंशो की प्रधान शाखा से दो मुख्य शखाएँ हो गईं :- पहला अन्धक वंश और दूसरा वृष्णि वंश। अन्धक वंश में कंस का जन्म हुआ तथा वृष्णि वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था।

अन्धक वंश :- (1). कुकुर और देविमूढस (देविमूढस के दो रानिया थीं). (2). धृष्ट, (3) कपोतरोपन, (4). विलोमान, (5). अनु, (6). दुन्दुभि, (7). अभिजित, (8). पुनर्वसु, (9). आहुक, (10-i). उग्रसेन का यक्ष से उत्त्पन्न नाजायज़ पुत्र कंस और पुत्री देवकी, देवकी का विवाह वासुदेव जी से हुआ जिनसे भगवान् श्री कृष्ण उतपन्न हुए , (10-ii). देवक का पुत्र शूर।

वृष्णि वंश :- देविमूढस (-देवमीढ़) के दो रानियाँ थीें। पहली मदिषा और दूसरी वैश्यवर्णा। पहली रानी मदिषा के गर्भ से शूर उत्पन्न हुए। शूर की पत्नी भोज राजकुमारी से दस पुत्र तथा पांच पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। (1). वासुदेव से भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी, (2). देवभाग से उद्धव नामक पुत्र, (3). देवश्रवा से शत्रुघ्न (-एकलव्य) नामक पुत्र, (4). अनाधृष्टि से यशस्वी नामक पुत्र हुआ, (5). कनवक से तन्द्रिज और तन्द्रिपाल नामक दो पुत्र, (6). वत्सावान के गोद लिए पुत्र कौशिक थे, (7). गृज्जिम से वीर और अश्वहन नामक दो पुत्र हुए, (8). श्याम अपने छोटे भाई शमीक को पुत्र मानते थे, (9). शमीक के कोइ संतान नही थी, (10). गंडूष के गोद लिए हुए चार पुत्र थे और इनके अतिरिक्त शूर के पांच कन्याए भी उत्पन्न हुई थी जिनके नाम उनके पुत्रों सहित :: (1). पृथुकी से दन्तवक्र (-पूर्व जन्म में कुम्भकर्ण, हिरण्याक्ष और भगवान् श्री विष्णु के वैकुण्ठ लोक का द्वारपाल विजय) नामक पुत्र, (2). पृथा (कुंती) से :- युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन नामक तीन पुत्र, (3). श्रुतदेवा से :- जगृहु नामक पुत्र, (4). श्रुतश्रवा से :- श्रुतश्र।  

यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के एक पौत्र का नाम था हैहय। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए। हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे। बाकी सब युद्ध करते हुए भगवान् परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे :- जयध्वज, शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। जयध्वज के तालजंघ नामक एक पुत्र था। तालजंघ के वंशज तालजंघ क्षत्रिय कहलाये। तालजंघ के भी सौ पुत्र थे। उनमें से अधिकांश को राजा सगर ने मार डाला था। तालजंघ के जीवित बचे पुत्रों में एक का नाम था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र के मधु नामक एक पुत्र हुआ। मधु के वंशज माधव कहलाये। मधु के कई पुत्र थे। उनमें से एक का नाम था वृष्णि। वृष्णि के वंशज वाष्र्णेव कहलाये। 

यदु के दूसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के बाद उसकी बारहवीं पीढी में विदर्भ नामक एक राजा हुए। विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे। विदर्भ के तीसरे वंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु। बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए। विदर्भ के दुसरे पुत्र क्रथ के कुल में आगे चल सात्वत नामक एक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वत वंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे :- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देववृक्ष, महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। भगवान् श्री कृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था। इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की।

अन्धक के वंशज अन्धक वंशी यादव कहलाये। अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि। वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ। अनु के पुत्र का नाम था, अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ। पुनर्वसु के दो संतानें थीं :- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव, देववर्धन नामक चार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।

सात्वत के पुत्रो से जो वंश परंपरा चली उनमें सर्वाधिक विख्यात वंश का नाम है वृष्णि-वंश। इसमें सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया। वृष्णि के दो रानियाँ थीं :- एक नाम था गांधारी और दूसरी का माद्री। माद्री के एक देवमीढुष नामक एक पुत्र हुआ। देवमीढुष के भी मदिषा और वैश्यवर्णा नाम की दो रानियाँ थी।

देवमीढुष की बड़ी रानी मदिषा के गर्भ दस पुत्र हुए, उनके नाम थे :- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सुजग्य, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। उनमें वसुदेव जी सबसे बड़े थे। वसुदेव के जन्म के समय देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से पुष्प की वर्षा की थी और आनक तथा दुन्दुभी का वादन किया था। इस कारण वसुदेव जी को आनकदुन्दु भी कहा जाता है। 

श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है, उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से, देवकी आदि सात पत्नियाँ अन्धक वंश से तथा सुतनु तथा वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली, दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्य वंश से थीं। उग्रसेन के बड़े भाई देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थीं। उन सबका विवाह वसुदेव जी से हुआ था। देवक की छोटी कन्या देवकी के विवाहोपरांत उसका चचेरा भाई कंस जब रथ में बैठा कर, उन्हें घर छोड़ने जा रहा था, तो मार्ग में आकाशवाणी हुई कि कंस जिसे वह बहुत ज्यादा प्यार से ससुराल पहुँचाने जा रहा था, उसी के आठवे पुत्र के हाथों उसकी मृत्यु निश्चित थी। देववाणी सुनकर कंस अत्यंत भयभीत हो गया और वसुदेव तथा देवकी को कारागार में बंद कर दिया। महायशस्वी भगवान् श्री कृष्ण का जन्म इसी कारागार में हुआ था। भगवान् श्री कृष्ण ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया और वसुदेव जी को भगवान् श्री कृष्ण के पिता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। वसुदेव के एक पुत्र का नाम बलराम था। बलराम जी भगवान् श्री कृष्ण के बड़े भाई थे। उनका जन्म वसुदेव की एक अन्य पत्नी रोहिणी के गर्भ से हुआ था। रोहिणी गोकुल में वसुदेव के चचेरे भाई नन्द के यहाँ गुप्त रूप से रह रही थी। 

यादवो ने कालान्तर मे अपने केन्द्र दशार्न, अवान्ति, विदर्भ् एवं महिष्मती मे स्थापित कर लिए। बाद मे मथुरा और द्वारिका यादवो की शक्ति के महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली केन्द्र बने। इसके अतिरिक्त शाल्व मे भी यादवों की शाखा स्थापित हो गई। मथुरा महाराजा उग्रसेन के अधीन था और द्वारिका वसुदेव के। महाराजा उग्रसेन का पुत्र कंस था और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण थे।

देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ। पर्जन्य के नन्द सहित नौ पुत्र हुए, जिनके नाम थे :- धरानन्द, ध्रुवनन्द, उपनंद, अभिनंद, सुनंद, कर्मानन्द, धर्मानंद, नन्द और वल्लभ। नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। नन्द और उनकी पत्नी यशोदा ने गोकुल में भगवान् श्री कृष्ण का पालन-पोषण किया। इस कारण वह आज भी परम यशस्वी और श्रद्धेय हैं। वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों चचेरे भाई थे।

Sunday, 13 May 2018

सप्ताह के सात दिनों का इतिहास

जब गृह सूर्य के चरों और घूमते है और परिक्रमा करके एक चक्र पूरा कर लेते है उस समय एक वर्ष बनता है । साथ ही साथ गृह दो प्रकार से गति करते है । सूर्य के चारों ओर गति करते है , गति करते-करते अपनी धुरी पर भी घूम जाते है ।  जब वे इस परिक्रमा के एक चक्र को पूरा कर लेते है तो वह दिन कहलाता है ।

24 घंटे में पृथ्वी अपनी धुरी पर एक बार पूरी तरह घूम जाती है तो उसे वार, दिन-day आदि कहते है ।

ऋषियों, ग्रंथों, के अनुसार रविवार इस सृष्टि का पहला दिन था । जिसे गणना के अनुसार सिद्ध भी किया जा चूका है ।

रवि को सूर्य,दिनकर,भास्कर आदि कहते है क्योंकि ये इसके पर्यायवाची शब्द है ।

सूर्यवार या रविवार

संध्या के अघमर्षण मंत्र में सूर्य परमपिता परमात्मा का एक नाम है अर्थात् जो साभी जीवो, स्थावर जंगम जातियों, जड़ पदार्थों को प्रकाशित करने वाला है  जो उसके ह्रदय में प्रकाश प्रेषित करता है । समस्त जीवों और ब्रहमाण्ड को प्रकाशित करता है। स्वयं प्रकाश स्वरुप है।
इसलिए परमपिता-परमात्मा का नाम सूर्य है ।  और यह गुण सौरमंडल के एक गृह में दिखता है ।  जिसको आज सूर्य के नाम से जानते है। तो इस गृह का नाम परमात्मा के सूर्य नाम को लेकर रखा गया। 

इसी को अंग्रेजो ने ऐसा ही सूर्य दिवस से सूर्य डे  अर्थात् Sun Day क्योंकि सूर्य को आज के समय पर SUN कहा जाता है । बिलकुल ऐसा का ऐसा ही कॉपी किया  गया । लेकिन फिर भी ये कहते है यह संसार को हमने दिया और हमारी ही रचना है ।

चंद्रवार अर्थात् सोमवार

चंद्रवार जिसे सोमवार कहा जाता है क्योंकि चन्द्र को सोम भी कहते है क्योंकि चन्द्र उसी परमपिता परमात्मा का एक नाम है। 
जो आनंद स्वरूप है और सबको आनंद देने वाला है । इसलिए उस पिता परमात्मा को चन्द्र कहा जाता है । उसी चन्द्र से पृथ्वी को  आनंदमय करने वाला रात्रि के समय पर एक उपगृह है । इसलिए उस उपगृह का नाम चन्द्र है क्योंकि रात्रि के समय सबको शीतलता और आनंद देने वाला है।
जिस परमात्मा सबको आनंदमय रखता है उसी प्रकार यह उपगृह पृथ्वी को आनंद अर्थात् शीतलता प्रदान करता है । इसलिए इस उपगृह का नाम चन्द्र रखा गया । और इसी गृह के नाम से ऋषिमुनियों दूसरा दिन बनाया जिसे चंद्रवार अर्थात् सोमवार कहते है । इसी प्रकार अंग्रेजो ने इसे चंद्रवार से Moon Day कर दिया जिसे आज Monday कहा जाता है ।

पवित्रवार अर्थात मंगलवार

मंगलवार को अंग्रेजों ने रोम के एक देवता के नाम पर रख दिया । मंगल को मार्श कर दिया गया । रोम का इस अंग्रेजी कैलेन्डर पर और इन वार पर बहुत ज्यादा प्रभाव है । रोम के ही सम्राट जुलियस सीज़र के नाम पर ही जुलाई रखा गया था और आगस्टस के नाम पर अगस्त महिना कर दिया।
रोम के ही एक देवता के नाम पर मंगल को मार्श कर दिया गया क्योंकि ये मंगल को ही मार्श कहते थे । इसी प्रकार इस वार का नाम मंगलवार कहा गया ।

जो मंगल स्वरूप है और सभी जीवों का मंगलकारण है  तो इसीलिए  उस ईश्वर का एक नाम मंगल भी है और इसी परमात्मा के एक नाम पर ऋषिमुनियों मंगल कर दिया ।

 बुध

जो बुध स्वरूप है जो महान बुद्धिमान है  सब जीवो का जाननेहारा है क्योंकि वह सभी जीवो को जनता है उनके अंत:करण में वास करता है इसलिए वह बुध कहलाता है । अर्थात वो महान बुद्धिवाला है।
इसलिए सौरमंडल के एक ग्रह को बुध कहा जाता है । क्यूंकि बुध बहुत तीव्र गति से सूर्य की परिक्रमा करता है जैसे बुद्धि तीव्र गति से । सभी संस्कृत के शब्द चयन ऋषिमुनियों ने  अपने ग्रहों के लिए किये है । और अंग्रेजो ने कॉपी कर लिया । बुध मात्र 88 दिन में सूर्य की एक परिकर्मा कर देता है उसे बुध ग्रह का नाम हमने दे दिया था ।

बृहस्पति

जो बड़ो से भी बड़ा है समस्त ब्रहमाण्ड से भी बड़ा है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है जिसमें सबकुछ समाया हुआ है । इसलिए उस परमपिता परमात्मा को बृहस्पति भी कहते है ये सब नाम एक ही परमात्मा के है।
बृहस्पति ग्रह बहुत बड़ा है ऋषिमुनियों ने परमात्मा के एक नाम से ही एक ग्रह का नाम बृहस्पति रखा है । और उसी नाम से ऋषिमुनियों एक वार बनाया जिसका नाम बृहस्पतिवार रखा गया है । जिस प्रकार परमात्मा में सब कुछ समाया हुआ है उसी प्रकार बृहस्पति ग्रह में सौरमंडल के सभी के सभी ग्रह इसमें समा सकते है केवल सूर्य को छोड़कर। 

शुक्रवार

जो अत्यंत पवित्र है जिसके संग से, साथ से सभी जीवात्मा पवित्र हो जाती है जो स्वयं भी पवित्र है। इसलिए उस परमपिता परमात्मा का एक नाम शुक्र भी है क्योंकि वो पवित्र है और शुक्र का अर्थ होता है पवित्र अर्थात् सौन्दर्य से भरपूर।
इसी प्रकार ऋषिमुनियों परमात्मा के ही एक नाम पर एक ग्रह का नाम शुक्र रखा । क्योंकि आज सभी ग्रहों में शुक्र सबसे ऐश्वर्यवान है और बहुत चमकीला है । जैसा परमात्मा है वैसे इस ग्रह का नाम शुक्र रखा है । और इस ग्रह के नाम से ही शुक्रवार रखा गया । अंग्रेजो द्वारा रोम की ही एक देवी के नाम पर इस शुक्र का नामकरण किया गया । क्योंकि वीनस को प्यार और सुन्दरता की देवी माना जाता है रोम में। 

शनिवार

शनि भी परमपिता परमात्मा का एक नाम है। जो सबसे सहज से प्राप्त हो जाता है और सबसे धर्यवान है । इसलिए उस परमपिता परमात्मा का एक नाम शनि है।
अर्थात् इसी से एक ग्रह से एक ग्रह का नाम रखा है शनि। क्योंकि ये सभी ग्रहों में सबसे आराम से सूर्य की परिक्रमा करता है । इसी ग्रह के नाम पर ऋषिमुनियों ने एक वार शनिवार रखा गया । जिसका अर्थ सबसे हल्का भी है और वास्तव में शनि ग्रह सबसे हल्का है। 

उपरोक्त 7 दिन हमारे ऋषिमुनियों ने परमपिता परमात्मा के नाम पर रखे हुए है। 
  1.  सूर्यवार अर्थात् रविवार
  2.  चन्द्रवार अर्थात् सोमवार
  3.  सृष्टि के तीसरे दिन जब सब मंगल लगा तो तीसरे दिन का नाम ऋषिमुनियों ने भोमवार अर्थात् मंगलवार कर दिया। 
  4. अगले दिन बुद्दी का प्रकाश हुआ और हमने बुद्धि से सभी वस्तुओं को देखा तो ऋषिमुनियों ने बुधवार कर दिया। 
  5. सृष्टि में सबसे पहला गुरु परमात्मा है और इसके ही एक नाम पर ऋषिमुनियों ने गुरुवार अर्थात् बृहस्पतिवार रखा । इस दिन तक परमपिता परमात्मा का ज्ञान धीरे-धीरे सब तक पहुंचना प्रारंभ हो गया था। 
  6. सृष्टि के आदि समय में वीर्य का ठीक ठीक उपयोग करके संतान उत्पत्ति प्रारंभ कर दी थी । जिस प्रकार शुक्र बहुत कम होता है उसी प्रकार शरीर में धातु अर्थात् वीर्य बहुत कम मात्र में उत्पन्न होता है ।जिसके लिए हमें अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए। 
  7. शनि बहुत पवित्र है जो परमात्मा का ही एक नाम है और सृष्टि के 7 वे दिन को शनिवार रखा गया क्योंकि इस दिन हमने सभी वस्तुओं का उपभोग करना प्रारंभ कर दिया था ।

1,96,08,53,118 वर्ष पहले सृष्टि का पहला दिन रविवार रखा गया । इस 18 मार्च,2018 को 119 वर्ष हो गये। यही नववर्ष होता है यही सम्पूर्ण सृष्टि का नववर्ष है।


सप्ताह के प्रत्येक दिन पर नौ ग्रहों के स्वामियों में से क्रमश: पहले सात का राज चलता है। जैसे :-

  1. रविवार पर सूर्य का राज चलता है।
  2. सोमवार पर चन्द्रमा का राज चलता है।
  3. मंगलवार पर मंगल का राज चलता है।
  4. बुधवार पर बुध का राज चलता है।
  5. बृहस्पतिवार पर गुरु का राज चलता है।
  6. शुक्रवार पर शुक्र का राज चलता है।
  7. शनिवार पर शनि का राज चलता है। 
अन्तिम दो राहु और केतु क्रमश: मंगलवार और शनिवार के साथ सम्बन्ध बनाते हैं।

यहाँ एक बात याद रखना ज़रूरी है- पश्चिम में दिन की शुरुआत मध्य रात्रि से होती है और वैदिक दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है। वैदिक ज्योतिष में जब हम दिन की बात करें तो मतलब सूर्योदय से ही होगा। सप्ताह के प्रत्येक दिन के कार्यकलाप उसके स्वामी के प्रभाव से प्रभावित होते हैं और व्यक्ति के जीवन में उसी के अनुरुप फल की प्राप्ति होती है। जैसे- चन्द्रमा दिमाग और गुरु धार्मिक कार्यकलाप का कारक होता है। 

Saturday, 12 May 2018

राजपूतों की उत्पत्ति

राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में उतने ही मत हैं जितने कि उसके विद्वान। जहाँ एक ओर कुछ विद्वान राजपूतों को विदेशी बताते हैं, वहीं दूसरे उन्हें देशी मानते हैं जबकि एक तीसरा मत उनकी देशी - विदेशी मिश्रित उत्पत्ति मानता है। परन्तु मतों के इस विव्चना के पूर्व हम "राजपूत" शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार कर लेते हैं।




"राजपूत" शब्द की व्युत्पत्ति

डॉ० वी० एस स्मिथ की यह मान्यता है कि राजपूतोंकी आठवीं या नवीं शताब्दी में सहसा उत्पत्ति हुई, अनेक इतिहासकारों केशोध - निष्कर्षों पर यह बात निर्मूल सिद्ध होती है। जयनारायण आसोपा ने राजपूत शब्द की उत्पत्ति के स्रोत संदर्भों को आधार पर विवेचना करते हुए स्पष्ट किया है कि वैदिक कालीन 'राजपुत्र' 'राजन्य', या 'क्षत्रिय' वर्ग ही कालान्तर में राजपूत जाति में परिणत हो गया। 'राजपूत' शब्द
 वैदिक 'राजपुत्र' का ही अपभ्रंश शब्द है। ॠगवेद में 'कस्य धतधवस्ता भवथ: कस्य बानरा, राजपुत्रेव सवनाय गच्छद', यजुर्वेद में 'पश्वी राजपुत्रो गोपायति राजन्यों वै प्रजानामधिपति रायुध्रुंव आयुरेव गोपात्यथो क्षेत्रमेव गोवायते', तथा ॠगवेद में ही ''ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य कृत्य:'', के गहरे काले शब्द यह प्रकट करते हैं कि 'राजपुत्र' तथा 'राजन्य' समानार्थक रुप में प्रयुक्त हुए ह। राजन्य 'क्षत्रिय' अर्थात् योद्धाओं के लिए प्रयुक्त होता था जो राज्य के अधिपति थे। 'मनस्मृति' में भी क्षत्रिय का यही अर्थ लिया गया है। 'शतपथ ब्राह्मण' में राजपुत्र, राजन्य तथा क्षत्रियों का पृथक रुप में उल्लेख मिलता है, ब्राह्मणकाल (१००० ई० पू०) से इनमें भेद किया जाना आरम्भ हो गया था।


'महाभारत', 'तैत्रेय ब्राह्मण' तथा कालिदास की 'रघुवंश' काव्यकृति मे इन शब्दों का प्रयोग समानार्थक रुप में हुआ है। डॉ० गौरीशंकर प्रसाद ओझा ने 'राजपुत्र' शब्द का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्र, कालिदास के 'मालविकाग्निमित्र', अश्वघोष के 'सौंदरानंद' तथा बाणभ के 'हर्षचरित' एवं 'कादम्बरी' ग्रन्थों में विभिन्न अर्थों में किया जाना बतलाया है। कौटिल्य ने राजा के पुत्रों के लिए तथा कालिदास व अश्वघोष ने सामन्तों के पुत्रों के अर्थ में राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया है। ह्मवेनसांग ने यात्रावर्णन में राजाओं को राजपुत्र के रुप में उल्लेख न कर उन्हें क्षत्रिय माना है। कल्हण की 'राजतरंगिनी' में राजपुत्र शब्द का प्रयोग भूस्वामियों के लिए किया गया है किन्तु उन्हें राजपूतों के ३६ वंशों से सम्बन्धित माना है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि १२वीं शताब्दी के आरंभ में राजपुत्र या राजपूत वंश एक जाति के रुप में अस्तित्व में आ गया था। महाभारत काल तक राजपुत्र, राजन्य तथा क्षत्रिय समानार्थक शब्द थे किन्तु बाद में राजपुत्र तथा क्षत्रियों में विभेद किया जाने लगा।

सभी शासक 'राजन' कहलाते थे और उनके संबंधी 'राजपुत्र' प्राचीनकाल में कुछ शासक युनानी, शक एवं हूण विदेशी थे तथा कुछ शासक देश के ही क्षत्रिय जातियों के थे। इन देशी तथा विदेशी शासकों में परस्पर वैवाहिक संबंधों द्वारा विलयन की प्रक्रिया चल रही थी। शासकों तथा सामन्तों के वंशज राजपुत्र थे जो अपने राज्य विनष्ट होने के पश्चात् भी स्वयं को राजुपूत (राजपुत्र) नाम से पुकारने लगे।




राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न मत और उनकी समीक्षा

राजपूत शब्द मूलत: 'राजपुत्र' का अपभ्रंश है जिसमें देशी तथा विदेशी शासकों का धर्म परिवर्तन द्वारा भारतीयकरण होने के बाद उनके परस्पर विलियन से या सम्मिश्रण से उत्पन्न राजपुत्र वर्ग में सम्मिलित हैं। विलियन की यह प्रक्रिया १२ वीं शताब्दी तक सम्पन्न हो चुकी थी। अत: विलयन के पूर्व राजपूत अर्थात् राजपुत्रों के मूल वंशों के आधार पर इनकी उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मत प्रचलित हो गये। उत्पत्ति सम्बन्धी विभिन्न मतों का वर्गीकृत वर्णन नीचे दिया जा रहा है -
१) अग्निवंशीय मत
२) सूर्य और चंद्र वंशीय मत
३) विदेशी वंश का मत
४) गुर्जर वंश का मत
५) ब्राह्मण वंशीय मत
६) वैदिक आर्य वंश का मत

उपर्युक्त मतों के समीक्षात्मक वर्णन कुछ इस प्रकार है -


अग्निवंशीय मत

अपने वंश की उत्पत्ति देवताओं से मानने की प्राचीन परम्परा रही है; दैव उत्पत्ति से अपने वंश की श्रेष्ठता स्थापित करना एक मानवीय दुर्बलता तो है ही, इसे प्रतिष्ठा का एक सूचक भी माना जाता है। मिस्र के शासक - 'फराहो' - स्वयं को 'रा' (सूर्य) का पुत्र कहते थे और यूनानी शासक अपनी एकता बनाये रखने के लिए अपनी उत्पत्ति एक ही देवता से मानते थे। कुशाण शासक चीनी शासकों की भाँति 'देवपुत्र' की उपाधि धारण करते थे। भारत में भी कुछ लोग अपनी उत्पत्ति सूर्य, चन्द्र, अग्नि देवता से मानते थे। अग्निवंशीय मत भी सूर्य तथा चंद्रवंशीय के समान एक मिथक है।

पार्टि ने सर्वप्रथम 'आग्नेय' जाति का उल्लेख महाकाव्यों और पुराणों में किया जाना बतलाया। मार्कण्डेय पुराण, महाभारत के वन पर्व तथा अनुशासन पर्व और रामायण के अयोद्धया काण्ड में आग्नेय जाति का उल्लेख किया गया है। पार्टि के अनुसार यह जाति 'कुरु क्षेत्र' के उत्तर में रहती थी। वी० एस० पाठक ने इन्हीं स्रोतों के आधार पर इस जाति का अधिवासन उत्तरीय भारत में बतलाया है, जो आगे चल कर ब्राह्मणों में परिणत हो गई। आसोपा ने मार्कण्डेय तथा विष्णु पुराण के आधार पर आग्नेय अर्थात् अग्नि से उत्पन्न जाति के पूर्वज 'अग्निधारा' (जिसके वंश में भरत नामक प्रतापी राजा हुआ) की 'मनु स्वयंभुव' से उत्पत्ति मानी जाती है। मनु स्वयंभुव 'मनु वैवस्वत' से भिन्न है। मनु वैवस्वत सूर्य वंशियों का पूर्वज था तथा 'इला' चंद्रवंशियों का पूर्वज था। ॠग्वेद में वर्णित भरतवंशी आग्नेय थे जो बाद में ब्राह्मण बने और वे चंद्रवंशीय दुष्यन्त के पुत्र भरत से संबंधित नहीं थे।

आसोपा की मान्यता है कि अग्निवंश की मान्यता मथुरा की कपोल कल्पना मात्र नहीं है बल्कि यह महाभारत तथा पुराणों के युग तक प्राचीन है। 'अग्निजया' शब्द अग्नि से उत्पन्न वंश का द्योतक है। कृष्ण स्वामी अयंगर ने दूसरी शताब्दी के तमिल भाषा के ग्रन्थ 'पुर्नानुरु' में एक सामन्त की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बतलाई गई है। डी० सी० सरकार ने महाराष्ट्र के नानदेद जिले से प्राप्त अक उत्कीर्ण लेख में (जो ११वीं शताब्दी का है) अग्निवंश का उल्लेख पाया है। पद्मगुप्त के ग्रन्थ 'नवशशांक - चरित' (९७४ - १००० ई०) में परमार शासक को आबू पर्वत पर वशिष्ट के अग्निकुण्ड से उत्पन्न माना है तथा परमारों के परवर्ती सभी लेखों में अग्निवंशी होने का उल्लेख है। नीलकंठ शास्री को अग्निवंश का प्रमाण दक्षिण भारत के एक शासक कुलोतुंग तृतीय (११७८ - १२१६ ई०) के शिलालेख से मिलता है। चंदवरदायी द्वारा १२वीं शताब्दी के अन्त में रचित ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' में चालुक्य (सोलंकी), प्रतिहार, चहमान तथा परमार राजपूतों की उत्पत्ति आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से बतलाई है, किन्तु इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थल पर इन्हीं राजपूतों को "रवि - शशि जाधव वंशी" कहा है।

अग्निवंशीय उत्पत्ति के स्रोतों की समीक्षा द्वारा इस मत से संबंधित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पद्मगुप्त ने परमारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बतलाते हुअ इन्हें 'ब्रह्म - क्षेत्र' भी माना है। बी० एम० राऊ ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कि वशिष्ट के वंशज परमार क्षत्रियों को (जिनके पूर्वज पहले ब्राह्मण थे किन्तु बौद्ध बन गये थे) पवित्र अग्निकुण्ड से पवित्र किया। ओझा ने 'ब्रह्मक्षत्र' की व्याख्या करते हुए कहा है कि जो शासक ब्रह्मत्तव और क्षत्रीय दोनों गुण धारण करते थे उनके लिए 'ब्रह्मक्षत्र' कहा जाता था। डॉ० दशरथ शर्मा का मत है कि परमार पहले ब्राह्मण थे किन्तु धर्म की रक्षार्थ क्षत्रिय बन गये। इसके पूर्व भी श्री शुंग, सातवाहन, कदम्ब तथा पल्लव शासक ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय कहलाये। ओझा ने अग्निवंशी मत की एक अन्य व्याख्या की है। परमार वंश के प्रथम शासक 'धूम्रराज' का एक उत्कीर्ण लेख में उल्लेख है। अत:'धूम्र' अर्थात् अग्नि से निकले हुए धुएँ से धूम्रराज की अग्निवंशी उत्पत्ति मानी गई। किन्तु अन्य अग्निवंशी राजपूतों ने इस मत को मान्यता नहीं दी है। आसोपा का मत है कि परमार ब्राह्मण से क्षत्रिय बने।

मंडौर के प्रतिहार ब्राह्मण हरिश्चन्द्र के वंशज तथा कन्नौज के प्रतिहार लक्ष्मण के वंशज कहे जाते हैं। अत: प्रतिहार भी ब्राह्मण से क्षत्रिय बने। चहमानों का पूर्वज सामन्त बिजोलिया लेख के अनुसार विप्र था। चालुक्य भी अभिलेखों के आधार पर ब्राहम्णों के वंशज थे। इस प्रकार 'पृथवीराज रासो' में उल्लिखित सभी चार राजपूत वंश ब्राह्मण से क्षत्रिय बने। अग्निवंशी कहने का तात्पर्य था कि अग्निकुण्ड से उनकी शुद्धि की गई। ये ब्राह्मण अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति बनाये रखने के लिए अग्निवंशी राजपूत कहलाये।

डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने चन्दवरदाई के 'पृथवीराज रासो' वर्णित अग्निकुण्ड से उत्पन्न चार राजपूत वंशों के प्रकरण को मात्र कवि की कल्पना माना है। भाटों, मुहतों, नेणसी और सूर्यमल्ल मिश्र ने इस मत का काफी प्रचार किया किन्तु १६वीं शताब्दी के अभिलेखों व साहित्यिक ग्रन्थों से यह प्रमाणित होता हे कि इन चार राजवंशों में से तीन - प्रतिहार, चौहान व परमार सूर्यवंशी तथा (चालुक्य) चन्द्रवंशी थे। डॉ० दशरथ शर्मा ने भी अग्निवंश मत को भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र बतलाया है। डॉ० ईश्वरीप्रसाद इसे तथ्य रहित बतलाते हुए लिखते हैं कि ब्राह्मणों का एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है। कुक इस मत के सम्बंध में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि अग्निवंशी कहने का तात्पर्य है कि विदेशी तथा देशी शासकों को अग्नि से पवित्र कर राजपूत जाति में सम्मिल्लित किया गया। जे० एन० आसोपा का पूर्व उल्लिखित मत भी विचारणीय है कि ब्राह्मण जो क्षत्रिय बने थे अपनी प्राचीन आग्नेय उत्पत्ति को बनाये रखने के लिए राजपूत कहलाये।



सूर्य तथा चंद्रवंशीय (सोमवंशी) मत

अग्निवंशी राजपूतों के समान ही अपनी दैव उत्पत्ति मानते हुए राजपूत वंशों ने स्वयं को सूर्यवंशी अथवा चंद्रवंशी होने की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। डॉ० ओझा अग्निवंशी मत का खण्डन करते हुए राजपूतों को सूर्य और चंद्रवंशीय मानते हैं। इसके प्रमाण स्वरुप शिलालेखों व ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि नाथ लेख (९७१ ई०) आरपूर लेख (१२८५ ई०), आबू शिलालेख (१४२८ ई०) तथा श्रृंगी के लेख में गुहिल वंशी राजपूतों को रघुकूल (सूर्यवंश) से उत्पन्न माना है। पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य और सुजान चरित्र में चौहानों को क्षत्रिय माना है। वंशावली लेखकों ने राठौरों को सूर्यवंशी और यादवों, भाटियों एवं चंद्रावती के चौहानों को चंद्रवंशी माना है। इन प्रमाणों के आधार पर डॉ० ओझा राजपूतों को प्राचीन क्षत्रियों के वंशज मानते हैं।

डॉ० गोपीनाथ शर्मा ने इस मत को सभी राजपूतों की उत्पत्ति के लिए स्वीकार करना आपत्तिजनक माना है क्योंकि राजपूतों को सूर्यवंशी बतलाते हुए उनका वंशक्रम इक्ष्वाकु से जोड़ दिया गया है जो प्रथम सूर्यवंशी राजा था। बल्कि सूर्यवंशी और चंद्रवंशी समर्थक भाटों ने तो राजपूतों का संबंध इन्द्र, पद्मनाथ, विष्णु आदि से बताते बुए काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है। इन मतों के समर्थक किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाये। अत: डॉ० गोपीनाथ शर्मा यह मानते हैं कि इस मत का एक ही उपयोग दिखाई देता है कि ११वीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया, क्योंकि इन्होंने क्षात्र - धर्म के अनुसार विदेशी आक्रमणों का सामना सफलतापूर्वक किया। आगे चलकर यह मत लोकप्रिय हो गया और तभी से इसको मान्यता प्रदान की जाने लगी।

जयनारायण ओसापा ने सूर्य तथा चंद्रवंशी मिथक का विश्लेषण करते हुए यह मान्यता प्रकट की है कि सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी मूलत: आर्यों के दो दल थे जो भारत आये। पहला दल मध्य एशिया की जैक्सर्टीज तथा दूसरा दल उसी प्रदेश की इली नदियों से चलकर भारत में प्रविष्ट हुआ। महाभारत तथा पुराणों में सर्वप्रथम राजपूतों की सूर्य तथा चंद्र से उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। पार्टि की यह मान्यता है कि सूर्यवंशी क्षत्रिय द्रविड़ थे और चंद्रवंशी क्षत्रिय प्रयाग में शासक थे।
सी०वी० वैद्य इसे अस्वीकार करते हैं । वैंडीदाउ के आधार पर वैद्य यह मानते हैं कि सुदूर उत्तरी देशों से आर्यों की एक शाका ने भारत में प्रवेश किया और वे सप्त सिंधु में बस गये। वैद्य ने भारत की जनगणना रिपोर्ट (१९२१) के आधार पर कहा है कि आर्यों का पहला दल उत्तरी भारत में आये जिनकी प्रतिनिधि भाषाएँ राजस्थानी, पंजाबी, पहाड़ी तथा पूर्वी हिन्दी है। आर्यों का दूसरा दल उत्तरी भारत में प्रवेश कर दक्षिण से जबलपुर, दक्षिण - पश्चिम में काठियावाड़ तथा उत्तर - पूर्व में नेपाल तक पहुँच गया। ये दो आर्यों के दल ही महाभारत काल के सूर्य व चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाने लगे। वैद्य की मान्यता है कि मनु स्वयंभुव वंशज भरत ॠग्वेद में वर्णित भारत जाति है जो महाकाव्य काल में सूर्यवंशी कहलाये। यह आर्यों का पहला दल था। दूसरे दल में ॠग्वेद वर्णित यदु, तुर्वस, अनुस, द्रहयु तथा पुरु वर्ग के लोग थे जो चंद्रवंशी कहलाये।

आसोपा, वैद्य की उपर्युक्त मान्यता को भाषायी आधार पर स्वीकार नहीं करते तथा वे ॠग्वेद के भारत तथा मनु स्वयंभुव के वंशज भरत को एक वर्ग का नहीं मानते। सूर्यवंशी इक्ष्वाकु राजा मनु वैवस्तव का पुत्र था, न कि मनु स्वयंभुव का। वैवस्तव का अर्थ सूर्य है जिसके वंशज इक्ष्वाकु कहलाये। वेदों में वर्णित 'इक्ष्वाकु' आर्यों के प्रथम दल के सूर्यवंसी थे तथा 'अइल' आर्यों के दूसरे दल के चंदवर्ंशी थे। आसोपा ने 'इक्ष्वाकु' तथा 'अइल' के मूल अधिवासन स्थल की खोज करते हुए कहा है कि महाभारत व हरिवंश पुराण में वर्णित 'इक्षुमति' नदी कुरुक्षेत्र में थी। रामायण में भी इसका उल्लेख है। स्ट्रैबो ने भी व्यास और यमुना नदियों के बीच एक नदी इमेसस (इक्षुमति) का उल्लेख किया है जिसे यूनानी मिनेन्डर ने पार किया था। इससे प्रतीत होता है कि आर्यों की इक्ष्वाकु शाखा 'इक्षुमति' नदी के तटों पर बस गई थी। मध्य एशिया में जैक्सर्टीज नदी में आनेवाले इन आर्यों ने भारत में कुरुक्षेत्र प्रदेश की नदी का नाम भी जैक्सर्टीज का भारतीय रुप इक्षुमति रख दिया तथा स्वयं इक्ष्वाकु कहलाये। इनका शासन इक्ष्वाकु मनु वैवस्तव (सूर्य) का पुत्र था। इसके कारण ही सूर्यवंशी मत का प्रचलन हुआ।

महाभारत, हरिवंश तथा विष्णु पुराण में पंजाब की नदी 'इरा' का उल्लेख है जो अब 'रावी' के नाम से पुकारा जाती है। रामायण के अयोध्या काण्ड में वर्णन है कि भरत ने कैकेय प्रदेश से आते हुए शतद्रु के तट पर 'अइल' राज्य को पार किया। इससे स्पष्ट होता है कि 'अइल" आर्यों की दूसरी शाखा का अधिकार क्षेत्र 'इरा' (रावी) तथा "शतद्रु' (सतलज) नदियों के मध्य था। मध्य एशिया में, जहाँ से आर्य भारत आये, जैक्सर्टीज (इक्ष्वाकु) नदी के उत्तर में एक ओर नदी 'इली' थी। इली नदी से भारत आने वाली दूसरी शाखा के आर्य 'अइल' थे जो चन्द्रवंशी कहलाये। रुस में उत्खनन द्वारा भी आर्यों के अवशेष इस 'इली' नदी के तट पर मिले हैं। मध्य एशिया के यू - ची 'चन्द्रमा के लोग' इली नदी के तट पर बसे थे। इससे प्रतीत होता है कि जब ये लोग भारत आये थे तो स्वयं को चंद्रवंशी कहने लगे। आसोपा की मान्यता है कि इक्ष्वाकु मनु वैवस्तव से संबंधित थे। ये आर्य थे जो जैक्सर्टीज से होते हुए इक्षुमति को पार करके भारत में पूर्व की ओर चले गये। अइल भी जो सोम ॠषि तथा बुद्ध के वंशज थे, आर्य थे। ये इली व इरा नदी के तट पर रहते थे जिन्होंने यह नाम अन्य स्थानों तथा नदियों को भी दिया जहाँ वेगये। भारत की इरावती नदी तथा लंका का प्राचीन नाम इला भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं। अत: आसोपा की मान्यता है कि सूर्यवंशी व चंद्रवंशी क्षत्रिय आर्यों की वे दो शाखआएँ थीं जो मध्य एशिया से भारत आईं। एक शाखा वहाँ की जैक्सर्टीज नदी तच पर तथा दूसरी शाखा वहाँ की इली नदी के तट से भारत आईं।



विदेशी वंश का मत

पिछले दोनों मतों के विपरीत इतिहासकार कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक और सिथियन बताया है। इसके प्रमाण में वे राजपूतों में प्रचलित ऐसे रीति - रिवाजों का उल्लेख करते हैं जो शक जाति के रीति - रिवाजों से साम्य रखते हैं। सूर्य की पूजा, सती प्रथा, अश्वमेघ यज्ञ, मद्यपान, शस्रों और घोड़ों की पूजा तथा तातारी और शकों की पुरानी कथाओं का पुराणों की कथाओं से साम्य रखना ऐसे तथ्य हैं जो राजपूतो की विदेशी उत्पत्ति प्रकट करते है। डॉ० स्मिथ ने भी शक, यूचि, गुर्जर व हूण विदेशी जातियों का भारत में धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बन जाना स्वीकार किया है और इन विदेशी जातियों के राज्य स्थापित हो जाने पर उससे राजपूतों की उत्पत्ति मानी है। राजपूतों ने एपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु स्वयं को चन्द्र या सूर्यवंशी कहना प्रारम्भ किया। कर्नल टॉड की पुस्तक का सम्पादन करने वाले विलियम कुक भी इस मत का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि वैदिक कालीन क्षत्रियों एवं मध्यकालीन राजपूतों की अवधि का अन्तराल इतना अधिक है कि दोनों के सम्बन्ध मूलवंश - क्रम से संबंधित करना संभव नहीं है। शक, सिथियन, हूण आदि विदेशी जातियाँ हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश - रक्षक के रुप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अत: उन्हें महाभारत तथा रामायण काल के क्षत्रियों से संबंधित कर दिया गया और सूर्य तथा चंद्रवंशी माना गया।

डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने विदेशी उत्पत्ति को अस्वीकार किया है। जिन रीति - रिवाजों के आधार पर राजपूतों और शकों का साम्य किया गया है वे रीति - रिवाज वैदिक काल तथा पौराणिक काल में भी भारत में विद्यमान थे। डॉ० ओझा ने अभिलेखों के आधार पर तथ्य प्रकट किया है कि मौर्य और नन्दवंश के पतन के बाद भी सातवीं सदी तक क्षत्रियों का अस्तित्व था। द्वितीय शताब्दी के राजा खारवेल के उदयगिरी - लेख में 'कुसंब जाति के क्षत्रियों' का उल्लेख है, इसी अवधि के नासिक की पाण्डव गुहा लेख में 'उत्तम भाद्रक्षत्रियों' का वर्णन है, गिरिनार पर्वत -लेख में 'यौधेयों' को क्षत्रिय कहा गया है तथा तीसरी सदी के नागार्जुन कोंड - लेख में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का उल्लेख है।

यद्यपि डॉ० ओझा के विदेशी मत के विपक्ष में ये तर्क महत्वपूर्ण हैं किन्तु जो विदेशी भारत में आकर बस गये, उनका भारतीय समाज में विलनीकरण कैसे हुआ, यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है। डॉ० गोपीनाथ शर्मा का मत है - 'इस प्रश्न को हल करने में हमें यही युक्ति सहायक होगी कि इन विदेशियों के यहाँ आने पर पुरानी सामाजिक व्यवस्था में अवश्य हेर - फेर हुआ।

डॉ० स्मिथ, कुक से सहमत होते हुए यह मानते हैं कि पृथ्वीराज रासो में जिन चार राजपूत वंशों की अग्निकुण्ड से उत्पत्ति बतलाई गई है, वे सभी विदेशी थे जिनको अग्नि द्वारा पवित्र कर राजपूत बनाया गया। दक्षिण के राजपूतों की उत्पत्ति तक गौड़, भार, कोल आदि जन - जातियों से मानते हैं। डॉ० आर० भण्डारकर प्रतिहारों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हुए अन्य अग्निवंशीय राजपूतों को भी विदेशी उत्पत्ति का कहते हैं। नीलकण्ठ शास्री विदेशियों के अग्नि द्वारा पवित्रीकरण के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं क्योंकि पृथ्वीराज रासो से पूर्व भी इसका प्रमाण तमिल काव्य 'पुरनानूर' में मिलता है। बागची गुर्जरों को मध्य एशिया की जाति वुसुन अथवा 'गुसुर 'मानते हैं क्योंकि तीसरी शताब्दी के अबोटाबाद - लेख में 'गुशुर 'जाति का उल्लेख है। जैकेसन ने सर्वप्रथम गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है। पंजाब तथा खानदेश के गुर्जरों के उपनाम पँवार तथा चौहान पाये जाते हैं। यदि प्रतिहार व सोलंकी स्वयं गुर्जर न भी हों तो वे उस विदेशी दल में भारत आये जिसका नेतृत्व गुर्जर कर रहे थे।

सी० वी० वैद्य विदेशी उत्पत्ति को अस्वीकार करते हुए राजपूतों की वैदिक आर्यों से उत्पत्ति मानते हैं। इसके लिये वे पहला तर्क देते हैं कि केवल वैदिक आर्यों की संतान ही अपने धर्म की रक्षार्थ विदेशी आक्रांकाओं से युद्ध कर सकते थे। दूसरा तर्क यह है कि राजपूतों की सूर्य अवं चंद्रवंशीय होने की परम्परा उन्हें उन दो तथ्यों आर्यों के दलों का वंशज सिद्ध करता है जिन्होंने मध्य एशिया से भारत में प्रवेश किया। तीसरा तर्क १९०१ में हुई भारत की जनगणना से राजपूतों का आर्य वंश का होना प्रकट होता है ।

डॉ० गौरीशंकर ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति संबंधी उपर्युक्त देशी व विदेशी मतों में सामन्जस्य स्थापित करते हुए कहा है कि राजपूत वैदिक क्षत्रियों के वंशज थे तथा जिन विदेशी जातियों - सिथियन, कुषाण, हूण, आदि का भारतीयकरण हुआ, वे भी मध्य एशिया की आर्य जाति के ही वंशज थे। यह मत टॉड तथा वैद्य के विरोधी मतों में सामन्जस्य कर देता है। डॉ० दशरथ शर्मा ने भी इसी मत का समर्थन करते हुए कहा है कि भारत की समस्त जनता युद्ध - प्रिय जातियाँ स्वयं को क्षत्रिय होने का अधिकार रखती थीं। आसोपा ने भी इस मत का समर्थन किया है जो तर्कसम्मत प्रतीत होता है।



गुर्जर वंश का मत

विदेशी वंश के मत के संदर्भ में यह व्यक्त किया जा चुका है कि कुछ विद्वान राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति गुर्जर होना मानते हैं। राजौर शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। गुर्जर कनिष्क के समय भारत आये और गुप्तकाल में सामन्त रुप में रहे। जैक्सन ने भी गुर्जरों 'हूणों' के साथ भारत अभियान पर आये 'खजर' जाति का माना है। आसोपा का मत है कि गुर्जरों ने छठी शताब्दी में राजस्थान तथा गुजरात में राज्य स्थापित कर लिये थे। ह्मवेनसांग ने इस प्रदेश को 'कुच -लो' अर्थात् गुजरात कहा है। बाणभ के ग्रन्थ 'हर्षचरित' में गुर्जर देश का उल्लेख है। अरब यात्री गुर्जरों को 'जुर्ज' कहते थे। नागौर जिले में दधिमाता मंदिर के शिलालेख में गुर्जर प्रदेश का उल्लेख है जो वहाँ की जोजरी नदी के कारण इस नाम से पुकारा गया है। ये साक्ष्य प्रकट करते हैं कि गुर्जर राजस्थान व गुजरात में निवास करते थे। किन्तु डॉ० गोपीनाथ शर्मा तथा डॉ० ओझा 'गुर्जर' शब्द का अर्थ प्रदेश विशेष मानते हैं शिलालेखों में इस प्रदेश के शासक को 'गुर्जरेश्वर 'या 'गुर्जर' कहा गया है।

डॉ० सत्यप्रकाश राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जाति गुर्जर से मानना स्वीकार नहीं करते क्योंकि गुर्जर विदेशी नहीं थे और ह्मवेनसांग ने भी गुर्जर को क्षत्रिय माना है। गुर्जर प्रतिहारों के शिलालेखों में भी उन्होंने भारतीय आर्यों की संतान माना है। अत: निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गुर्जर भारतीय थे और वे भारतीय क्षत्रिय वंश से संबंधित थे।


ब्राह्मणवंशीय मत

बिजोलिया - शिलालेख में वासुदेव (चहमान) के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स - गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है। राजशेखर ब्राह्मण का विवाह राजकुमारी अवन्ति सुन्दरी से होना भी चौहानों का ब्राह्मणवंशीय होना प्रकट करता है। 'कायमखाँ रासो' में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बतलाई गई है जो जमदग्नि गोत्र में था। इस तथ्य का साक्ष्य सुण्चा तथा आबू अभिलेख है। डॉ० भण्डारकर का मत है कि गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से थी।

डॉ० ओझा तथा वैद्य इस ब्राह्मणवंशीय मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि 'द्विज ब्रह्माक्षत्री', 'विप्र' आदि शब्दों का प्रयोग राजपूतों को क्षत्रिय जाति की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिए। डॉ० गोपीनाथ शर्मा कुम्भलगढ़ - प्रशस्ति के आधार पर गुहिलवंशीय राजपूतों को ब्राह्मण वंशीय माना है। चाटसू अभिलेख में गुहिल भर्तृभ को 'ब्रह्मक्षत्री' इसलिये कहा गया है कि उसे ब्राह्मण संज्ञा से क्षत्रित्व प्राप्त हुआ। पहले भी कण्व तथा शुंग ब्राह्मणवंशीय क्षत्रिय शासक हुए हैं।



वैदिक आर्य वंश का मत

सूर्य तथा चंद्रवंशीय मतों के संदर्भ में यह विवेचन किया जा चुका है कि राजपूत वैदिक आर्यों की दो शाखाओं ने भारत में कुछ कालान्तर में प्रवेश किया। डॉ० ओसापा का मत है कि आर्यों की ये दो शाखआओं मध्य एशिया से भारत आईं। मध्य एशिया में इनके निवास - स्थल दो नदियों जैक्सर्टीज (इक्ष्वाकु) तथा इली के तट पर स्थित थे। इक्ष्वाकु से आने वाले चंद्रवंशीय क्षत्रिय कहलाये। रामायण, महाभारत, हरिवंश तथा विष्णु पुराणों के आधार पर यह तथ्य प्रकट होता है चीनी स्रोतों तथा रुस में हुए उत्खनन द्वारा भी इसकी पुष्टि होती है।

इस मत के आधार पर पश्चिमोत्तर प्रदेश से भारत में प्रवेश करने वाले आर्यों के समान अन्य विदेशी भी मूलत: आर्यवंशी प्रतीत होते हैं। भारत में ये विदेशी जातियाँ भी राज्य स्थापित कर राजपूत जाति के रुप में संगठित हो वैदिक आर्यों के क्षत्रिय वंश से अपना संबंध सूर्य तथा चंद्रवंशी बनकर स्थापित करने लगे।



निष्कर्ष

राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी उपर्युक्त मता - विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत जाति में देशी क्षत्रिय तथा विदेशी, शक, पह्मलव, हूण आदि भी भारत में राज्य स्थापितकर 'राजपुत्र' बन इसमें सम्मिलित हो गये। डॉ० गोपीनाथ शर्मा की व्याख्यानुसार जिस तरह शक, पह्मलव, हूण आदि विदेशी यहाँ आए और जिस तरह इनका विलीनीकरण भारतीय समाज में हुआ, इसकी साक्षी इतिहास है। ये लोग लाखों की संख्या में थे। पराजित होने पर इनका यहाँ बस जाना प्रामाणिक है। ऐसी अवस्था में उसका किसी न किसी जाति से मिलना स्वाभाविक था। उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील होने से अपने में मिलाया। इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी, जो यकायक क्षात्र - धर्म से सुसज्जित होकर प्रकाश में आ गई और शकादिकों का अस्तित्व समाप्त हो गया। यह स्थिति सामाजिक उथल - पुथल की पोषक है। हरिया देवी नामक हूण कन्या का विवाह गुहिलवंशी अल्लट के साथ होना, जो कि सं० १०३४ के शक्तिकुमार शिलालेख से स्पष्ट है इस सामंजस्य का अकाट्य प्रमाण है जब सभी राजसत्ता ऐसी जाति के हाथ आ गई तो ब्राह्मणों ने भी उन्हें क्षत्रिय की संज्ञा दी। उनकी राजनैेतिक स्थिती ने उन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा प्रदान की जिसे लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे। इस सम्बन्ध में इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि सम्भवत: सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ एक वंशों ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये रखा हो।

भारतीय राजपूत वंशावली

भारतीय समाज और संस्कृति का आधार स्तंभ रही है वर्णव्यवस्था। यह वर्णव्यवस्था वैदिक युग में समाज के सुचारु संचालन के लिए, कार्य के आधार पर तय की गई। शिक्षा और धर्म के ध्वज वाहक ब्राम्हण कहलाये, सुरक्षा, शासन, और युद्ध का कार्य वाला क्षत्रिय कहलाया, भरण – पोषण की जिम्मेदारी निभाने वाला वैश्य तथा हर तरह की सेवा में संलग्न समुदाय शुद्र कहलाया।
 ऋग्वेद के पुरुषसूक्त – 10 /09/ 12 – में वर्णन है कि –

ब्रम्हणोस्य मुखमासीत वाहू राजन्यकय्तः।
अरुःयत तद्वैश्यः पदभ्यांशूद्रो आजयता॥

अर्थात ब्राम्हण का जन्म ईश्वर के मुख से, क्षत्रिय का हाथ से, वैश्य का जांघ से और शुद्र का पांव से हुआ बताया गया। आर्यों के द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने के प्रयास में अत्यन्त नियोजित रुप से एक उपयोगी संस्था के रुप में वर्ण व्यवस्था का विकास किया गया।

वैदिक साहित्य में क्षत्रिय  का आरम्भिक प्रयोग राज्याधिकारी या दैवी अधिकारी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। “क्षतात त्रायते इति क्षत्य अर्थात क्षत आघात से त्राण” देने वाला। मनुस्मृति में कहा कि क्षत्रिय शत्रु के साथ उचित व्यवहार और कुशलता पूर्वक राज्य विस्तार तथा अपने क्षत्रित्व धर्म में विशेष आस्था रखना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है। क्षत्रिय अर्थात वीर राजपूत सनातन वर्ण व्यवस्था का वह स्तम्भ है जो भगवान की भुजाओं से जन्म पाया और ब्राम्हण के बाद मानव समाज का दूसरा अंग कहा गया। यो क्षयेन त्रायते स?ःक्षत्रिय की उपाधि से अतंकृत क्षत्रिय के लिये गीता में कहा गया कि –

शौर्य तेजोधृति र्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनमं।
दानमीश्वर भावश्च क्षत्रं कर्म स्वभावजम॥

अर्थात शुरविरता, तेज, धैर्य, युद्ध में चतुरता, युद्ध से न भागना, दान, सेवा, शास्त्रानुसार राज्यशासन, पुत्र के समान पूजा का पालन – ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्तव्य – डर्म कहे गये हैं। क्षत्रिय और राजपूत शब्द को लेकर कुछ विवाद भी की स्थिति है। कुछ लोग दोनो को अलग – अलग मानते हैं। लेकिन अधिकांश इतिहासकार यह मानते हैं कि राजपूतों का संबंध क्षत्रियों से है। प्रत्येक राजा प्रायः क्षत्रिय हुआ करते थे। अतः राजपूत्र का अर्थ क्षत्रिय से माना गया। 12 वीं सदी के बाद राजपूत्र का मुख्सुख राजपूत हो गया जो कालान्तर में क्षत्रिय का जाति सुचक शब्द बन गया। 600 ई० से 1200 ई० तक काल को राजपूत काल कहा गया है। क्योकिं पूरे देश् में इस काल में इनका प्रभुत्व था। राजपूत निडर, निर्भय, साहसी, बहादुर, देश भक्त, सत्यवादी, वीर धुन के पक्के. कृतज्ञ, युद्ध कुशल, मर्यादापूर्ण, धार्मिक, न्यायप्रिय, उच्चविचार रखने वाला तो है हि सदैव ही भारतमाता की रक्षा के लिये अपना सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहते थे। राजपूतों का एक बडा गुण यह भी था कि वे अपनी मानमर्यादा, आन-बान-सम्मान पर हर क्षण अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिये तत्पर रहते थे। कर्नलटाड ने भी राजपूतों के उपर्युक्त गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

600 वर्षों तक राजपूतों ने न केवल भारत पर शासन किया, बल्कि विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ़ देश की रक्षा करें। भारतीय सभ्यता, संस्कृति तथा धर्म के संरक्षण एवं पोषण में इस जाति का प्रभाव श्लाघनीय एवं अतुलनीय है। राजनीतिक अवस्था के बाद भी राजपूत काल साहित्य, कला के उन्नति का काल था। स्थापत्य तथा शिल्पकला की इस समय बडी उन्नति हुई। मूर्तिकला और चित्रकला विकसित अवस्था में थी। साथ ही आर्थिक दशा भी इस समय अच्छी थी। अपूर्व पौरुषता और साहस की प्रतीक यह जाति बलिदान, सहिष्णुता और सिद्धांतों के त्याग के लिये इतिहास प्रसिद्ध रही है। भारतीय संस्कृति की रक्षा करने में जन समुदायों में श्रेष्ठ क्षत्रिय राजपूत कुलों का योगदान सर्वोपरि रहा है। क्षत्रिय वंशजों के खून से सिंचित यह पुरातन संस्कृति अन्यों की अपेक्षा आज भी अजर – अमर है।

क्षत्रिय वंश के उद्भव का प्रारम्भिक संकेत हमें पुराणों से मिलने लगता है कि सूर्यवंश और चंद्रवंश ही क्षत्रिय वंश परम्परा के मूल स्त्रोत है। पुराणों से संकेत मिलता है कि मनु के पूत्रों से ही सुर्यवंश की नींव पडी थी और मनु की कन्या ईला के पति बुध थे जो चंद्रदेव के पुत्र थे, इन्ही से चंद्रवंश की नींव पडी। मूल क्षत्रिय वंशों की संख्या के बारे में विद्वानों में एकमत नहीं है। कुछेक – सूर्यवंश, चंद्रवंश और अग्निवंश की चर्चा करते हैं तो सूर्यवंश, चंद्रवंश और अग्निवंश, ऋषिवंश तथा दैत्यवंश। हालाकिं अधिकांश इतिहासकार यह मानते है कि सूर्य तथा चंद्रवंश से ही सभी वंश शाखाएं है। अग्निवंश के संदर्भ में कहा जाता है कि अग्निवंशीय राजपूतों की उत्पत्ति ऋषियों द्वारा आबू पर्वत पर किये यज्ञ के अग्निकुंड से हुई जिनकी चार शाखाएं परमार, प्रतिहार, चौहान तथा सोलंकी। “चालुक्य” सूर्यवंश नामकरण के पूर्व मरीचि हुए जिनसे कश्यप और कश्यप से सूर्य तथा सूर्य से वैवस्तु मनु पैदा हुए जिन्होने अयोध्या नगरी बसाई। मनु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्ताकु अयोध्या की गद्दी पर बैठे तथा अपने दादा के नाम पर सूर्यवंश की स्थापना की। इसी कुल में मांधता, हरिचंद्र, सगर, दिलीप, भफ़ीरथ, दशरथ और भगवान राम जैसे प्रतापी राजा हुए है। इस वंश का गौत्र भारद्वाज है।

"दस रवि से दस चन्द्र से, बारह ऋषिज प्रमाण,
चार हुतासन सों भये , कुल छत्तिस वंश प्रमाण। 
भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान
चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण।। "

अर्थ:- दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का प्रमाण मिलता है।

सूर्य वंश की दस शाखायें:-
१. गहलोत/सिसोदिया २. राठौड ३. बडगूजर/सिकरवार ४. कछवाह ५. दिक्खित ६. गौर ७. गहरवार ८. डोगरा ९.बल्ला १०. वैस। 

चन्द्र वंश की दस शाखायें:-
१.जादौन २.भाटी ३.तोमर ४.चन्देल ५.छोंकर ६.झाला ७.सिलार ८.वनाफ़र ९.कटोच १०. सोमवंशी।

अग्निवंश की चार शाखायें:-
१.चौहान २.सोलंकी ३.परिहार ४.पमार।

ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर २.कनपुरिया ३.गर्गवंशी (हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त के वंशज) ४.दायमा ५.गौतम ६.अनवार (राजा जनक के वंशज) ७.दोनवार ८.दहिया (दधीचि ऋषि के वंशज) ९.चौपटखम्ब १०.काकन ११.शौनक १२.बिसैन।

चौहान वंश की चौबीस शाखायें:-
१.हाडा २.खींची ३.सोनीगारा ४.पाविया ५.पुरबिया ६.संचौरा ७.मेलवाल ८.भदौरिया ९.निर्वाण १०.मलानी ११.धुरा १२.मडरेवा १३.सनीखेची १४.वारेछा १५.पसेरिया १६.बालेछा १७.रूसिया १८.चांदा १९.निकूम २०.भावर २१.छछेरिया २२.उजवानिया २३.देवडा २४.बनकर।

सूर्यवंश की शाखाएं एवं उपशाखाएं हैं –

  1. गहलौत क्षत्रिय – इसकी शाखाएं हैं : – गोत्र – बैजपाय गौतम, कश्यप कुलदेव – वाणमता वेद – यजूर्वेद, नदी सरयू। उपशाखाएं — अहाडिया मांगलिमा पीपरा  सिसोदिया।गहलोत वंश के आदि पुरुष गुह्यदत्त हुए है जिनके नाम पर यह वंश चला। एकमत के अनुसार गुजरात के राजा शिलादित्य के पुत्र केशवादित्य से यह वंश चला। गह्वर गुफ़ा में केशवादित्य के जन्म होने के कारण इस वंश का नाम गहलौत पड गया। एक दूररे मत के अनुरार इस वंश के आदि पुरुष गुहिल थे।
  2. कछवाहा क्षत्रिय – गौत्र – गौतम, कुलदेवी – दुर्गा, वेद – सामवेद नदी सरयू। इनकी तेरह मुख्य शाखाओं एवं उपशाखाओं का उल्लेख मिलता है।
  3. राठौर – गौत्र “राजपूताना” कश्यप पूर्व में , अत्रि दक्षिण भारत में तथा बिहार में शंडिल्य। वेद – सामवेद, देवी- दुर्गा। इस वंश की 24 शाखाओं का उल्लेख मिलता है।
  4. निकुम्म क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वशिष्ठ तथा भारद्वाज। प्रवर – तीन – वशिष्ठ, अत्रि एवं सांकृति। कुल देवि – कालिका। वेद – यजुर्वेद। नदी – सरयू।
  5. श्री नेत क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। देवी – चंद्रिका। वेद – सामवेद। कुछ लोग इन्हे निकुम्म की शाखा मानते हैंं। 
  6. नागवंशी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गोत्र – कश्यप तथा शुनक।
  7. बैस क्षत्रिय – बैस क्षत्रिय सूर्यवंश के अन्तर्गत माने जाते हैं।गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। देवी – कालिका। वेद – यजुर्वेद। वैसे क्षत्रियों का प्रधान क्षेत्र बैसवाडा उत्तर प्रदेश है। इनकी तीन मुख्य शाखायें हैं – कोट भीतर, कोट बाहर, एवं त्रिलोक चंदी।
  8. विसेन क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – स्थानुसार – परासर, भारद्वाज, शंडिल्य, अत्रि तथा वत्स। वेद – सामवेद। कुल देवी- दुर्गा। राजा विस्स सेन के नाम पर इस वंश का नाम विसेन पडा।
  9. गौतम क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – गौतम। प्रवर – पांच – गौतम, आंगीरस, आष्यासार, वृहस्पति, पैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। नदी गंगा। देवी – दुर्गा। गौतम वंश की प्रधान शाखायें कंडवार, गोनिह एवं अंटैया हैं।
  10. बडगूजर क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वरिष्ठ। प्रवर – तीन-वशिष्ठ, अत्रि, सांकृति। वेद- यजुर्वेद। देवी – कालीका। ये रामचंद्र जी के पुत्र लव के वंशज है।
  11. गौड क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद। कुलदेवी – महाकाली। गौड क्षत्रिय अपने को राजा भरत दशरथ पुत्र का वंशज मानते हैं। गौड क्षत्रिय की प्रमुख शाखाय्रं – अतहरि, सिलहाना, तूर, दुसेना तथा बोडाना।
  12. नरौनी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप, वशिष्ठ। प्रवर – तीन – वशिष्ठ, अत्रि, सांकृति। वेद – यजुर्वेद। इसे शीनेत की एक शाखा भी माना गया हैं। राजपूताना के नरवर में बसने के कारण नरौनी क्षत्रिय नामकरण हुआ है। 
  13. रैकवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद। रैकवार नामक राजा के जम्बू के निकट रैकागढ बसाया और उन्ही के नाम पर रैकवार क्षत्रिय नामकरण हुआ।
  14. सिकरवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज, शंडिल्य, सांकृति। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – सामवेद। कुलदेवी – दुर्गा।
  15. दुर्गवंश क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कौत्स। वेद – यजुर्वेद। कुलदेवी – चण्डी।
  16. दीक्षित क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर तीन-कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। देवी – दुर्गा। दुर्गवंश की शाखा है। दुर्ग वंशी राजा कन्याण शाह को प्रमर राजा विक्रमादित्य ने उज्जैन में दीक्षित किया और यहीं से दुर्ग वंश की दीक्षित शाखा चल रही है।
  17. कानन क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भार्गव। प्रवर – तीन- भार्गव, निलोहित, रोहित। वेद – यजुर्वेद। देवी – दुर्गा। दक्षिण भारत के कोकन प्रदेश से उत्तर की ओर आव्रजित होने पर पूर्व स्थान के नाम पर काकन क्षेत्रिय नामकरण।
  18. गोहिल क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर तीन-कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। देवी – बाणमाता।
  19. निमी वंशीय क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप, वशिष्ठ। वशिष्ठ गौत्र का वेद – यजुर्वेद एवं कश्यप गौत्र का वेद – सामवेद। राजा इक्ष्वाकु के पुत्र निमि से निमिवंश का नामकरण हुआ है। निमि के पुत्र मिथि ने मिथिला नगरी बसाई है।
  20. लिच्छवी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – गौच्छल। वेद – यजुर्वेद। देवी चण्डी। नदी – नर्मदा।
  21. गर्गवंशी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र - गर्ग। प्रवर – तीन – गर्ग, कौस्तुभ, माण्डव्य। वेद – सामवेद। देवी – कालिका।
  22. रघुवंशी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप, वशिष्ठ। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्साह, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। राजा रघु के वंशज कहलाते हैं। जौनपुर जनपद का बयालसी परगना और डोमी परगना रघुवंशी क्षत्रियों का क्षेत्र है। वाराणसी के कटेहर क्षेत्र में भी रघुवंशी क्षत्रियों का निवास है।
  23. पहाडी सूर्यवंशी क्षत्रिय – गौत्र – शौकन। प्रवर – तीन – शोनक, शुनक, गृत्सनद। वेद – यजुर्वेद। देवी – काली। इनके पूर्वज अयोध्या से नेपाल गये।
  24. सिंधेल क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र- कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। देवी – पार्वती। उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ जिलों में इनके कई गांव हैं।
  25. लोहथम्भ क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। ्देवी – चण्डी। गाजीपुर, बलिया, गया, आरा जिलों में इनकी आबादी अधिक है।
  26. धाकर क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद। देवी – कालिका। धाकर क्षत्रिय हरदोई, बुलंदशहर, आगरा, मैनपुरी, इटावा, एटा तथा बिहार के शाहाबाद तथा पटना जिलों में बहुताय से हैं।
  27. उदमियता क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वत्स। प्रवर – पांच- और्ण्य, च्यवन, भार्गव, जन्मदग्नि, अप्रुवान। वेद-सामवेद। देव_ – कालिका। उद्यालक ऋषि के छत्र – छाया में पलने के कारण ये उद्यमिता क्षत्रिय कहलायें। मूल स्थान राजस्थान है। वहां से ये लोग गोरखपुर, आलमगढ तथा बिहार के शाहाबाद, गया तथा मागलपुर जिलों में आकर बस गये।
  28. काकतीय क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद। देवी – चण्डी। दक्षिण के वारंगल क्षेत्र तथा बस्तर में इनका राज्य था। उत्तर प्रदेश में भी ये क्षत्रिय मिलते थे।
  29. सूरवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – गर्ग। प्रवर – तीन – गर्ग, कौस्तुम्भ, माण्डव। वेद – यजुर्वेद।
  30. नेवतनी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – शंडिल्य। प्रवर – तीन – शंडिल्य, असित, देवल। देवी – अम्बिका।
  31. मौर्य क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – गौतम। प्रवर – तीन – गौतम, वशिष्ठ, वृहस्पति। वेद – यजुर्वेद।
  32. शुंग वंशी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वशिष्ठ। प्रवर – तीन – वशिष्ठ, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – सामवेद। देवी – दुर्गा।
  33. कटहरिया क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वशिष्ठ। प्रवर – तीन – वशिष्ठ, अत्रि, सांकृति। वेद – यजुर्वेद। नदी – सरयू। देनी – कालिका। कटहर में बसने के कारण ये कटहरिया कहलाये। इनका निवास मुरादाबाद, ब्दांयू, शाहजंहापुर, अलीगढ, एटा तथा बुलंदशहर में अधिक है।
  34. अमेठिया क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – सामवेद। यह गौड क्षत्रियों की एक उपशाखा है। इनका निवास अमेठी परगना ( लखनऊ ) होने के कारण ये अपने को अमेठिया क्षत्रिय कहते हैं।
  35. कछलियां क्षत्रिय –  सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – शंडिल्य। प्रवर – तीन- शंडिल्य, असित, देवल। वेद – सामवेद।
  36. कुशभवनियां क्षत्रिय –  सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र स्थानभेद से – शांडिल्य, असित, पराशर तथा भारद्वाज। वेद – सामवेद। देवी- बंदीमाता। ये क्षत्रिय अपने को कुश का वंशज मानते हैं। सुल्तानपुर में गोमती नदी के किनारे कुशभवनपुर है। निवा के आधार पर इनका नाम कुशभवनियां क्षत्रिय पडा।
  37. मडियार क्षत्रिय –  सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वत्स। प्रवर – पांच-औवर्य, च्यवन, भार्गव, जमदग्नि, अप्युवान। वेद – सामवेद। देवी – सतीपरमेश्वरी। नदी – सरयू। मूलस्थान – उदयपुर।
  38. कैलवाड क्षत्रिय –  सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद। देवी – बन्दी। नदी – गंगा। कैलवाड क्षत्रियों राठौड वंश की एक शाखा जगावत की उपशाखा से संबंधित है। जगावत वंश के राजा का कैलवाड ( मेवाड के पास ) में राज्य था। उसी के नाम पर कैलवाड क्षत्रिय पडा।
  39. अन्टैया क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – गौतम। प्रवर – पांच- गौतम, अंगीरस, अप्यार, वाचस्पत्य, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। नदी – सरयू।
  40. भतिहाल क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -सामवेद।
  41. बाला क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है।
  42. बंधलगोती क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है।
  43. महथान क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गोत्र – वत्स। प्रवर – पांच – और्व्य, च्यवन, भार्गव, जमदग्नि, अप्रुवान। देवी – दुर्गा। वेद – सामवेद।
  44. चमिपाल क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद -सामवेद। मूलस्थान उदयपुर है। मलियान तथा सेवतिया इनकी दो शाखायें हैं।
  45. सिहोगिया क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -सामवेद। देवी – दुर्गा। बिहार के गया तथा पलामू जिलों में इनका निवास है।
  46. बमटेला क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – शांडिल्य। प्रवर – तीन – शंडिल्य, असित, देवल। वेद – सामवेद। यह विसेन क्षत्रियों की शाखा है। हरदोई, फ़रुखाबाद जिलों मं इनकी जनसंख्या अधिक है।
  47. बम्बवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -यजुर्वेद। इनका भी उल्लेख विसेन वंश की शाखा के रुप में हुआ है।
  48. चोलवंशी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -यजुर्वेद। चोल प्रदेश ( दक्षिण भारत) में निवास करने के कारण चोल क्षत्रिय नामकरण हुआ।
  49. पुंडीर क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – पुलस्त्य। वेद – यजुर्वेद। देवी – दधिमती माता। उत्तर प्रदेश के इटावा अलीगढ, सहारनपुर जिलों में इन क्षत्रियों का निवास है।
  50. कुलूवास क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – पुलस्त्य। वेद – यजुर्वेद। निवास सलेडा राजस्थान।
  51. किनवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद -सामवेद। बलिया छपरा तथा भागलपुर के कुछ गांवों में इनका निवास है।
  52. कंडवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – गौतम। प्रवर – पांच – गौतम, अंगीरस, वत्सार, वृहस्पति, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। देवी- चण्डी। गौतम क्षत्रियों की एक उपशाखा कंडावत गढ में बसने से कण्डवार क्षत्रिय हो गई। छपरा जिले में इनका निवास है।
  53. रावत क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -यजुर्वेद। देवी -चण्डी। गौतम वंश की उपशाखा है। इन क्षत्रियों का निवास उन्नाव तथा फ़तेहपुर जिलों में हैं।
  54. नन्दबक क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद -यजुर्वेद। देवी – दुर्गा। यह कछवाहा वंश की उपशाखा है। ये जैनपुर, आजमगढ, बलिया तथा मिर्जापुर जिलों में है।
  55. निशान क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वत्स। प्रवर – पांच – और्व्य, च्यवन, भार्गव, जमदग्नि, अप्रुवान। देवी – भगवती दुर्गा। वेद – सामवेद। निशान निमिवंश की उपशाखा है। बिहार के पटना, गया तथा शाहाबाद जिलों में इनका निवास है।
  56. जायस क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। यह राठौर वंश की उपशाखा है। इनका गौत्र आदी भी राठौर जैसा है। रायबरेली के जासस नामक स्थान में बसने के कारण यह नाम पडा।
  57. चंदौसिया क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -सामवेद। देवी – दुर्गा। यह वैस क्षत्रियों की एक उपशाखा है जो वैसवाड से आव्रजित होकर सुल्तानपुर के चंदौर ग्राम में बस गई।
  58. मौनस क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – मानव। यह कछवाहा क्षत्रियों की उपशाखा है जो आमोर से मिर्जापुर तथा बनारस आकर बस गई।
  59. दोनवार क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद -यजुर्वेद। यह विसेन क्षत्रियों की उपशाखा है।
  60. निमुडी क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। यह निमि वंश की उपशाखा है। गौत्र आदि भी एक ही है।
  61. झोतियाना क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। यह कछवाहा वंश की एक उपशाखा है। इनका निवास उत्तर प्रदेश में मेरठ और मुज्ज्फ़रनगर जिलों में है।
  62. ठकुराई क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -यजुर्वेद। इस वंश का संबंध नेपाल से है। इनको शाह की पदवी भी मिली है। वर्तमान में इनका निवास बिहार के मोतीहारी, शाहाबाद तथा भागलपुर जिलों में है।
  63. मराठा या भोंसला क्षत्रिय – सूर्यवंश की शाखा है। गौत्र – वैजपायण, कौशिक तथा शैनक। वेद – यजुर्वेद। देवी जगदम्बा। अधिकांश विद्वानों की राय से भोंसला वंश सिसोदिया वंश की एक उपशाखा अहि। सूर्यवंश की वह शाखायें एवं उपशाखायें जो आबू पर्वत पर यज्ञ की अग्नि के समक्ष देश और धर्म की रक्षा का व्रत लेकर अग्नि वंशी कहलाई।

  • परमार क्षत्रिय – गौत्र – वशिष्ठ, गार्ग्य, शौनक, कौडिन्य। प्रवर – तीन – वशिष्ठ, अत्रि, सांकृति। वेद – यजुर्वेद। देवी – दुर्गा तथा काली देवी। परमार वंश में ही प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य एवं भोज हुए हैं।
  • चौहान क्षत्रिय – गौत्र – वत्स। प्रवर – पांच- और्व्य, च्यवन, भार्गव, जमदग्नि, अप्रुवान। वेद – सामवेद। देवी – आशापुरी। चौहान वंश की 26 उपशाखाओं का उल्लेख मिलता है।
  • प्रतिहार या परिहार – गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – यजुर्वेद। देवी चामुण्डा। परिहार वंश की भी अनेक उपशाखायें हैं।


चन्द्रवंशी क्षत्रीय

अत्रि जी के पुत्र चन्द्र देव थे। चन्द्र देव के पुत्र वुध थे। महाराजा वुध का विवाह महाराजा तनु की पुत्री ईला से हुआ था। इनसे महाराजा पुरुरुवा का जन्म हुआ। पुरुरुवा ने ही अपने दादा चन्द्र देव के नाम पर चन्द्रवंशी की नींव डाली जिसकी आज अनेक शाखायें और उपशाखायें हो गई हैं। चन्द्र वंश को ही सोमवंशी भी कहते हैं।

चन्द्रवंश की शाखायें तथा उपशाखायें:-

  1. सोमवंशी क्षत्रिय – गौत्र – अत्रि, व्याघ्र। प्रवर – तीन – अत्रि, आत्रेय, शाताआतप। वेद – यजुर्वेद। देवी – तहालक्ष्मी। नदी – त्रिवेणी।
  2. यादव क्षत्रिय – चन्द्रवंश की शाखा है। गौत्र – कौन्डिय। प्रवर – तीन – कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। देवी – जोगेश्वरी। वेद – यजुर्वेद। नदी – यमुना। महाराजा ययाति के ज्येष्ठ पुत्र यदु के नाम से यदु वंश या यादव वंश का नामकरण हुआ। इसी काल में भगवान कृष्ण और बलराम का जन्म हुआ था।
  3. भाटी या जरदम क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा है। ये लोग अपने को कृष्ण का वंशज मानते हैं। इस शाखा में कभी भाटी नाम के प्रतापी राजा हुए थे। इन्ही के नाम पर भाटी वंश चल पडा। जैसलमेर का दुर्ग इसी वंश के राजाओं ने बनवाया है।
  4. जाडेजा क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा है। इस शाखा के लोग अपने को कृष्ण के पुत्र साम्ब का वंशज मानते हैं। 
  5. तोमर क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। इन्हे तुर या तंवर भी कहते हैं। गौत्र – गार्ग्य। प्रवर – तीन – गार्ग्य, कौस्तुभ, माण्डव्य। वेद यजुर्वेद। देवी – योगेश्वरी, चिकलाई माता। तोमर वंश के लोग अपने को पाण्डु का वंशज मानते हैं। जन्मेजय ने नागवंश को समूल नष्ट करने का व्रत लिया था। उनके इस आचरण से नागवंश के महर्षि आस्तिक बहुत अप्रसन्न हुए। जन्मेजय ने महर्षि आस्तिक से क्षमा याचना की और प्रायश्चित के लिए यज्ञ सम्पन्न हुआ। जिसके अधिष्ठाता महर्षि तुर थे। इन्ही महर्षि तुर के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए जन्मेजय के वंशज अपने को तुर क्षत्रिय कहने लगे। डा. देव सिंह निर्वाण ने एक आलेख में तोमर क्षत्रियों की 25 शाखाओं का उल्लेख किया है।
  6. हैहय क्षत्रिय – गौत्र – कृष्णात्रेय, कश्यप, शांडिल्यय, नारायण। प्रवर – तीन – कृष्णात्रेय, आत्रेय, व्यास। वेद – यजुर्वेद। देवी – दुर्गा। हैयय क्षत्रिय अपने को प्रतापी राजा कार्तबीर्य का वंशज मानते हैं। कुछ लोग उन्हे राजा हय का भी वंशज मानते हैं।
  7. करचुलिया क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। देवी – विन्ध्यवासिनी। संभवतः यह हैयय वंश की उपशाखा है।
  8. कौशिक क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कौशिक। प्रवर – तीन – कौशिक, जमदग्नि, अत्रि। देवी – योगेश्वरी। वेद – यजुर्वेद।
  9. सेंगर क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – गौतम। प्रवर – तीन – गौतम, वशिष्ठ, वृहष्पति। वेद – यजुर्वेद। देवी – विन्ध्यवासिनी।
  10. चंदेल क्षत्रिय – गौत्र – चंद्रायण। प्रवर – तीन – चंद्रात्रेय, आत्रेय, संतातप। वेद-यजुर्वेद। देवी- मनिया देवी। राजा चन्द्र वर्मा की संतानों ने अपने को चंदेल क्षत्रिय उदघोषित किया। इस वंश का प्रधान स्थान ग्वालियर के पास का चंदेरी था जो आज भी अपनी साडीयों के लिये प्रसिद्ध है। खजुराहो का मंदिर चंदेल राजाओं का ही बनवाया गया है।
  11. गहरवार क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। देवी – अन्नपूर्णा।
  12. बेरुवार क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। देवी – चण्डिका।
  13. सिरमौर क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद।
  14. जनवार क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कौशिक। प्रवर – तीन – कौशिक, जमदग्नि, अत्रि। देवी – चण्डिका। वेद – यजुर्वेद।
  15. भाला क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। देवी – महाकाली।
  16. पलिवार क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – वेयाध्र। प्रवर – दो – वैयाध्र, सांकृति। वेद – सामवेद। फ़ाइजाबाद जिले में इनके नाम से एक पलिवारी क्षेत्र ही है।
  17. गंगा वंशी क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – अत्रि। प्रवर – तीन – अत्रि, आत्रेय, शातातप। वेद – यजुर्वेद। देवी – योगेश्वरी।
  18. पुरुवंशी क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – वृहस्पति। प्रवर – तीन – वृहस्पति, अंगीसर, भारद्वाज। वेद – यजुर्वेद। देवी – दुर्गा।
  19. खाति क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – अत्रि। प्रवर – तीन – अत्रि, आत्रेय, शातातप। वेद – यजुर्वेद। देवी – दुर्गा।
  20. बुंदेला क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। यह गहरवार वंश की एक उपशाखा है और गोत्रादि उसी के अनुसार है।
  21. कान्हवंशी क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -सामवेद।
  22. रकसेल क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कौन्डिय। प्रवर – तीन – कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। वेद – यजुर्वेद।
  23. कटोच क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। 
  24. तिलोता क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद। देवी – दुर्गा।
  25. बनाफ़र क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कौन्डिन्य, कौत्स, स्तिमिक। वेद – यजुर्वेद। देवी – शारदा।
  26. भारद्वाज क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कौन्डिअन्य। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – सामवेद। देवी – श्रदा।
  27. सरनिहा क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -सामवेद। देवी – दुर्गा।
  28. हरद्वार क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – भार्गव। प्रहर – तीन – भार्गव, नीलोहीत, रोहित।
  29. चौपट खम्भ क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – कश्यप। प्रवर – तीन – कश्यप, वत्सार, नैध्रुव। वेद – सामवेद।
  30. कर्मवार क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद।
  31. भृगु वंशी क्षत्रिय – चन्द्र वंश की एक शाखा। गौत्र – भार्गव। प्रवर- तीन – भार्गव, नीलोहित, रोहित। वेद – यजुर्वेद।
चंद्र वंश की शाखा जो अग्नि वंश के रुप में प्रचारित हुई है।

  • सोलंकी क्षत्रिय – गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद – यजुर्वेद। देवी – काली।