चन्द्र वंश की उत्पत्ति सहस्त्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानव में घोर संग्राम छिड़ गया।
दानवों के गुरु शुक्राचार्य जी ने देवगुरु बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्त्रेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।
तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’ अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार ज़ोर-ज़ोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया। परीक्षित! ब्रह्माजी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’ क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ।
परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरूरवा के पास चली आयी। यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्युलोक में आना पड़ा था। फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुन्दर हैं- यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरूरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। राजा पुरूरवा ने कहा- सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार अनन्त काल तक चलता रहे।
उर्वशी ने कहा- ‘राजन! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाय? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अत: मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’ परम मनस्वी पुरूरवा ने ठीक है- ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। और फिर उर्वशी से कहा- ‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टि को मोहित करने वाला हे। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?
परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल केसर की सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे। इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- ‘उर्वशली के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है’ वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों के द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र के समान प्यारे भेड़ों की ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नंपुसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है’ परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरूरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े। गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरूरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)।
परीक्षित! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे। एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा- ‘प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायँगे’।
उर्वशी ने कहा- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायँ। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं। तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक राज तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।
राजा पुरूरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी में लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरूरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दु:ख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- ‘तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की। परीक्षित! राजा पुरूरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन में दूसरे वन में घूमते रहे।
जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल में लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए। फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थली छोड़ी थी। जब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोक की कामना से नीचे की अरणिको उर्वशी, ऊपर की अरणिको पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया। उनके मन्थन से ‘जातवेदा’ नामक अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्निदेवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि- इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशीलोक की इच्छा से पुरूरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया।
यदु वंश :: शर्मिष्ठा और देवयानी का प्रसंग :-
किसी समय दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। उनके साथ में गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी भी थी। शर्मिष्ठा अति मानिनी तथा अति सुन्दर राजपुत्री थी; किन्तु रूप लावण्य में देवयानी भी किसी प्रकार कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर माता पार्वती के साथ उधर आ निकले। भगवान शंकर को आते देखकर वे सभी कन्याएँ लज्जावश दौड़ कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रतावश शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिये। इस पर देवयानी ने क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से कहा कि एक असुर पुत्री होकर उसने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण कर उसका अपमान किया है। देवयानी ने शर्मिष्ठा को इस प्रकार से और भी अनेक अपशब्द कहे। देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएँ में धकेल दिया।
शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् दैववश राजा ययाति शिकार खेलते हुये वहाँ पर आ पहुँचे। अपनी प्यास बुझाने के लिये वे कुएँ के निकट गये और उस कुएँ में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। उन्होंने देवयानी के देह को ढँकने के लिये अपना दुपट्टा उस पर डाल दिया और उसका हाथ पकड़कर, उसे कुएँ से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेम पूर्वक राजा ययाति से कहा कि उन्होंने उसका हाथ पकड़ा था। अतः उसने उनको अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया था। उसने बताया कि वो गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी और एक ब्राह्मण पुत्री होने के बावजूद वृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण, उसका विवाह किसी ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता था।देव गुरु वृहस्पति के पुत्र कच गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रह कर सञ्जीवनी विद्या सीखने आये थे। देवयानी ने उन पर मोहित होकर उनके सामने अपना प्रणय निवेदन किया था। किन्तु गुरुपुत्री होने के कारण कच ने उसके प्रणय निवेदन को अस्वीकार कर दिया। इस पर देवयानी ने रुष्ट होकर कच को अपनी पढ़ी हुई विद्या को भूल जाने का शाप दिया। कच ने भी देवयानी को शाप दे दिया कि उसे कोई भी ब्राह्मण पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा।इसलिये उसने आग्रह किया कि ययाति प्रारब्ध समझ कर उसे पत्नी स्वीकार कर लें। ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
देवयानी वहाँ से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किये हुये कर्म पर शुक्राचार्य को बहुत क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गये। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा, अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से अनुनय-विनय करने लगे। इस प्रकार अनुनय-विनय किये जाने से शुक्राचार्य का क्रोध कुछ शान्त हुआ और वे बोले कि वे उसके उत्तर से संतुष्ट थे। परन्तु उन्हें देवयानी को भी प्रसन्न करना जरूरी था।वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिये उन्होंने उससे कहा कि वे उसकी प्रसन्नता के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। देवयानी ने उनकी पुत्री शर्मिष्ठा को दासी के रूप में माँग लिया। राक्षस जाति और अपने परिवार पर आये संकट को टालने के लिये शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।
शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ, उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। कुछ काल उपरान्त देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्रोत्पत्ति की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया, जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्य, अनु तथा पुरु हुये। जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के सम्बंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के घर चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर उनसे कहा कि वे स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि तथा क्रूर थे। इसलिये शुक्राचार्य ने उन्हें तत्काल वृद्धावस्था को प्राप्त होने का श्राप दे दिया। उनके शाप से भयभीत होकर राजा ययाति अनुनय करते हुये दैत्य शुक्राचार्य से बोले कि उनकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुये, उनकी तृप्ति नहीं हुई थी। इस शाप में तो उनकी पुत्री का भी अहित था। तब विचार कर के गुरु शुक्रचार्य ने कहा कि कोई उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो वे उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते थे।
इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से कहा कि वो अपने नाना के द्वारा दी गई उनकी वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था उन्हें दे दे। यदु ने आदर पूर्वक कहा कि असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर वो जीवित नहीं रहना चाहता था। ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की माँग की। सबसे छोटे पुत्र पुरु को छोड़ कर अन्य पुत्रों ने उनकी माँग को स्वीकार नहीं किया। पुरु ने अपने पिता को अपनी युवावस्था सहर्ष प्रदान कर दी। पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा कि उसने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः ययाति ने यदु को राज्याधिकार से वंचित करके राज्य पुरु को दे दिया। ययाति ने श्राप भी दिया कि उसके वंशज सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेंगे। राजा ययाति के इसी पुत्र यदु के वंश में भगवान् श्री कृष्ण का अवतार हुआ तथा शिशुपाल ने धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ययाति के इसी शाप का उल्लेख किया था।
राजा ययाति एक सहस्त्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया।
कौरवों के जन्म की कथा :-
महर्षि वेदव्यास को धृतराष्ट्र से बहुत प्रेम था। उनके हस्तिनापुर आने पर गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की; जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।
महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।
पांडवों के जन्म की कथा :-
एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों-कुन्ती तथा माद्री, के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक ऋषि और उनकी पत्नी को मृग के रूप में मैथुनरत देखा। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये ऋषि ने पाण्डु को शाप दिया कि उसने उन्हें मैथुन के समय बाण मारा था; अतः जब कभी भी वो मैथुनरत होंगे, उनकी मृत्यु हो जायेगी।इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले कि वो अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के वन में ही रहेंगे। दोनों ही रानियों ने पाण्डु ने उनके साथ वन में अपने साथ रहने की इच्छा जाहिर कि जिसे पाण्डु ने स्वीकार कर लिया।
इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा कि कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता। अतः वो उनको अपने साथ ले जाने में असमर्थ थे।
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी कुन्ती से बोले कि उनका जन्म लेना ही वृथा हो रहा क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता था। कुन्ती ने कहा उन्हें दुर्वासा ऋषि ने ऐसा मन्त्र प्रदान कियाथा जिससे वो किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था। परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरूरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवा ने अग्नि को सन्तानरूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोग की प्राप्ति की।
चन्द्र की उत्पत्ति :-
तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है जिसका नाम सोम है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियाँ थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियाँ दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियाँ भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई। ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि ऋषि की तपस्या के दौरान उनकी आंखों से जल बहने लगा जिसके कारण दसों दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज ग्रहण न कर पाने के कारण दिशाओं ने उसका त्याग कर दिया। लेकिन बाद में ब्रह्मा ने संभाला और उसे लेकर वे दूर चले गए। उसी तेज पूर्ण बालक का नाम चंद्र रखा गया। औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया।
चन्द्र ने हजारों वर्ष तक विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। भगवान् शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।
उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था।
मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और चंद्रवंश चला। पुरुरवा ने ‘प्रतिष्ठान’ में अपनी राजधानी स्थापित की। पुरुरवा व अप्सरा उर्वशी से कई पुत्र हुए। सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकार मिला। दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज (कान्यकुब्ज) में राज्य की स्थापना की। अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ। नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना।
पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाए।
इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजा नहुष आयु के पहले पुत्र नहुष ने यति, ययाति, शर्याति, उत्तर, पर, अयाति और नियति सात पुत्र हुए। ययाति राजा बना और उसने अपनी पहली पत्नी से द्रुह्य, अनु और पुरु तथा दूसरी देवयानी से यदु और तुरवशु पुत्र उत्पन्न किए।
याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे; इसलिये राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।ययाति बिरजा के गर्भ से उत्पन्न महाराज नहुष के पुत्र थे। इनके पिता नहुष को अगस्त आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया; क्योंकि उसने इंद्रासन के साथ-साथ इन्द्राणी शची को भी पाने की अभिलाषा-लालसा में सप्तऋषियों को पालकी ढ़ोने में लगा दिया, जिसमें वो स्वयं सवार था और सर्प-सर्प (शीघ्र-चलो, शीघ्र चलो) कहकर, उनको पैर से ऐड़ लगाई और उन्हें दुत्कारा। ययाति के ज्येष्ठ भ्राता ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया, तब ययाति राजा के पद पर आसीन हुए। उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को, चार दिशाओं का शासक नियुक्त कर दिया। उन्होंने राक्षस-दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से विवाह किया। राक्षस राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा, जिसे देवयानी ने वृषपर्वा से दासी के रूप में प्राप्त किया था, से भी उन्होंने तीन पुत्र पैदा किये। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए। यदु के नाम से यादव वंश चला।
तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में, यदु को दक्षिण दिशा में, तुर्वसु को पश्चिम दिशा में तथा अनु को उत्तर दिशा का शासक बना दिया। पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर, उसके सब बड़े भाईयों को उसके अधीन कर स्वयम वन में तपस्या करने चले गए। उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए। देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान् का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गई।
चन्द्र वंश :- चन्द्रवंश क्षत्रिय ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र अत्री की संतान हैं। महर्षि अत्री की धर्मपत्नी अनुसूया का बड़ा पुत्र सोम था। सोम का वंश होने से यह सोम या चन्द्रवंश कहलाया।ब्रह्मा जी के पुत्र अत्रि ऋषि की तपस्या के दौरान उनकी आंखों से जल बहने लगा जिसके कारण दसों दिशाएं गर्भवती हो गईं। लेकिन उनका तेज ग्रहण न कर पाने के कारण दिशाओं ने उसका त्याग कर दिया। लेकिन बाद में ब्रह्मा जी ने संभाला और उसे लेकर वे दूर चले गए। उसी तेज पूर्ण बालक का नाम चंद्र रखा गया। औषधियों ने उसे पति के रूप में स्वीकार किया।
चन्द्र ने हजारों वर्ष तक भगवान् विष्णु की उपासना की और उनसे यज्ञ में भाग ग्रहण करने का अधिकार पा लिया। इसके बाद चन्द्र ने एक यज्ञ आयोजित किया जिसमें अत्रि होता बने, ब्रह्मा उदगाता, विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनें और भृगु अध्वर्यु। भगवान् शंकर ने रक्षपाल की भूमिका निभाई और इस तरह चन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो गया।
उसने अपने गुरु की पत्नी तारा को भी अपनी सहचरी बना दिया। जब बृहस्पति ने तारा को लौटाने का अनुरोध किया तो चन्द्रमा ने उसकी एक भी नहीं सुनी और अपनी जिद पर अड़ा रहा तो भगवान् शिव को क्रोध आ गया। उसके कारण ही चन्द्रमा ने तारा को लौटाया। जब तारा के पुत्र हुआ तो उसका नाम बुध रखा गया, वह चंद्रमा का पुत्र था।
मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और चंद्रवंश चला। पुरुरवा ने प्रतिष्ठान में अपनी राजधानी स्थापित की। पुरुरवा व अप्सरा उर्वशी से कई पुत्र हुए। सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकार मिला। दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज (-कान्यकुब्ज) में राज्य की स्थापना की। अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ। नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना।
पुरुरवा ने उर्वशी से आठ संतानें उत्पन्न कीं। इनमें से मुख्य पुत्र आयु के पांच पुत्र हुए और उनमें रजि के सौ पुत्र हुए और जो राजेश कहलाए।
सोम या चन्द्र का पुत्र बुध था, जिसका विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ था। बुध ने अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर को बनाया था, जो चिरकाल तक इस की राजधानी बना रहा। बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ जिसने उर्वशी नाम की अप्सरा से आयु नामक पुत्र उत्पन्न किया।
आयु का पुत्र नहुष और नहुष का पुत्र ययाति। ययाति की दो पत्निय थी। इनकी एक रानी श्मिष्ठा जो दानव राज वृषपर्वा की पुत्री थी। उसके तीन पुत्र हुए (1). द्र्हू, (2). पुरु (-चन्द्रवंशीय रजा हुए) और (3). अनु . ययाति की दूसरी रानी देवयानि जो की असुर गुरु शुकर्चार्य की पुत्री थी, जिससे दो पुत्र हुए। (1). यदु, (2). दुर्व्रसू।
चन्द्र वंशी नरेशों की नामावली :-
(1). ऋषि अत्री से उत्पत्ति, (2). सोम या चन्द्र (3). बुध, (4). पुरुरवा, (5). आयु, (6). नहुष, (7). ययाति, (8). पुरु, (9). जनमेजय, (10). प्रचिनवान, (11). प्रवीर, (12). मनस्यु, (13). अभयद, (14). सुघु, (15). बहुगत,(16). संयति,(17). अहंयाति, (18). रोद्राशव, (19). त्रतेयु, (20). मतनार, (21). तसु, (22). एलिन, (23). दुष्यंत, (24). भरत, (25). मन्यु, (26). वृहक्ष्त्र, (27). सुहोत्र, (28). हस्ती, (29). अजमीढ़, (30). ऋश, (31). संवरण, (32). कुरु, (33). जन्हु, (34). जन्मेजय, (35). सुरथ, (36). विदुरथ, (37). सार्वभोम, (38). जयत्सेन, (39). आराधित, (40). अयुतायु, (41). अक्रोधन, (42). देवातिथि, (43). ऋश, (44). भीमसेन, (45). दिलीप, (46). प्रतीप, (48). शांतनु, (49). विचित्रवीर्य, पाण्डु, (50). युधिष्ठर, (51). परीक्षित, (52). जन्मजय, (53). शतानीक, (54). सह्स्त्रनिक, (55).अश्वमेधदत, (56). अधिसिभ्कृष्ण, (57). निच्शु, (58). उष्ण, (59). चित्ररथ, (60). शुचिरथ, (61). व्र्सिमान, (62). सुषेण, (63). सुनीथ, (64). रुच, (65). सुकिबल, (66). सुखीबल, (67). सुनय, (68). मेधावी, (70). न्र्पंजय, (71). म्रद।
28 वें राजा हस्ती ने हस्तिनापुर बसाकर एस अपनी राजधानी बनाया ! इसके बाद कुरु ने कुरुक्षेत्र तक अपने राज्य का विस्तार किया।
ययाति के पुत्रो से प्रारम्भ वंश :-
(1). यदु से यादव, (2). तुर्वसु से यवन (-Europeans, present day Jews and Christians), (3). दुह्यु से भोज, (4). अनु से मल्लेक्ष (-Present day Muslims), (5). पुरु से पौरव।
(1). यदु से यादव, (2). तुर्वसु से यवन (-Europeans, present day Jews and Christians), (3). दुह्यु से भोज, (4). अनु से मल्लेक्ष (-Present day Muslims), (5). पुरु से पौरव।
यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान चम्बल क्षेत्र, वेववती (-वेतवा) और शुक्तिमती (-केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था।
श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र :- सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य यादव वन्शावली (प्रमुख यादव राजवंश) इस प्रकार है:-परमपिता नारायण, ब्रह्मा, अत्रि, चन्द्रमा (चन्द्रमा से चद्र वंश चला), बुध, पुरुरवा, आयु, नहुष, ययाति, यदु (यदु से यादव वंश चला), क्रोष्टु, वृजनीवन्त, स्वाहा (स्वाति), रुषाद्धगु, चित्ररथ, शशविन्दु, पृथुश्रवस, अन्तर (उत्तर), सुयग्य, उशनस, शिनेयु, मरुत्त, कन्वलवर्हिष, रुक्मकवच, परावृत्ज्या, मघ, विदर्भ्कृ, त्भीम, कुन्ती, धृष्ट, निर्वृति, विदूरथ, दशाह, व्योमन, जीमूत, विकृति, भीमरथ, रथवर, दशरथ, येकादशरथ, शकुनि, करंभ, देवरात, देवक्षत्र, देवन, मधु, पुरूरवस, पुरुद्वन्त, जन्तु (अन्श), सत्वन्तु, भीमसत्व .भीमसत्व के दो पुत्र थे (1). कुकुर और (2). देवमीढ़-देविमूढस। कुकुर से अन्धक और देवमीढ़ से वृष्णि वंश चला।
श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र :- सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य यादव वन्शावली (प्रमुख यादव राजवंश) इस प्रकार है:-परमपिता नारायण, ब्रह्मा, अत्रि, चन्द्रमा (चन्द्रमा से चद्र वंश चला), बुध, पुरुरवा, आयु, नहुष, ययाति, यदु (यदु से यादव वंश चला), क्रोष्टु, वृजनीवन्त, स्वाहा (स्वाति), रुषाद्धगु, चित्ररथ, शशविन्दु, पृथुश्रवस, अन्तर (उत्तर), सुयग्य, उशनस, शिनेयु, मरुत्त, कन्वलवर्हिष, रुक्मकवच, परावृत्ज्या, मघ, विदर्भ्कृ, त्भीम, कुन्ती, धृष्ट, निर्वृति, विदूरथ, दशाह, व्योमन, जीमूत, विकृति, भीमरथ, रथवर, दशरथ, येकादशरथ, शकुनि, करंभ, देवरात, देवक्षत्र, देवन, मधु, पुरूरवस, पुरुद्वन्त, जन्तु (अन्श), सत्वन्तु, भीमसत्व .भीमसत्व के दो पुत्र थे (1). कुकुर और (2). देवमीढ़-देविमूढस। कुकुर से अन्धक और देवमीढ़ से वृष्णि वंश चला।
भीमसत्व के बाद यादव राजवंशो की प्रधान शाखा से दो मुख्य शखाएँ हो गईं :- पहला अन्धक वंश और दूसरा वृष्णि वंश। अन्धक वंश में कंस का जन्म हुआ तथा वृष्णि वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था।
अन्धक वंश :- (1). कुकुर और देविमूढस (देविमूढस के दो रानिया थीं). (2). धृष्ट, (3) कपोतरोपन, (4). विलोमान, (5). अनु, (6). दुन्दुभि, (7). अभिजित, (8). पुनर्वसु, (9). आहुक, (10-i). उग्रसेन का यक्ष से उत्त्पन्न नाजायज़ पुत्र कंस और पुत्री देवकी, देवकी का विवाह वासुदेव जी से हुआ जिनसे भगवान् श्री कृष्ण उतपन्न हुए , (10-ii). देवक का पुत्र शूर।
वृष्णि वंश :- देविमूढस (-देवमीढ़) के दो रानियाँ थीें। पहली मदिषा और दूसरी वैश्यवर्णा। पहली रानी मदिषा के गर्भ से शूर उत्पन्न हुए। शूर की पत्नी भोज राजकुमारी से दस पुत्र तथा पांच पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं। (1). वासुदेव से भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी, (2). देवभाग से उद्धव नामक पुत्र, (3). देवश्रवा से शत्रुघ्न (-एकलव्य) नामक पुत्र, (4). अनाधृष्टि से यशस्वी नामक पुत्र हुआ, (5). कनवक से तन्द्रिज और तन्द्रिपाल नामक दो पुत्र, (6). वत्सावान के गोद लिए पुत्र कौशिक थे, (7). गृज्जिम से वीर और अश्वहन नामक दो पुत्र हुए, (8). श्याम अपने छोटे भाई शमीक को पुत्र मानते थे, (9). शमीक के कोइ संतान नही थी, (10). गंडूष के गोद लिए हुए चार पुत्र थे और इनके अतिरिक्त शूर के पांच कन्याए भी उत्पन्न हुई थी जिनके नाम उनके पुत्रों सहित :: (1). पृथुकी से दन्तवक्र (-पूर्व जन्म में कुम्भकर्ण, हिरण्याक्ष और भगवान् श्री विष्णु के वैकुण्ठ लोक का द्वारपाल विजय) नामक पुत्र, (2). पृथा (कुंती) से :- युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन नामक तीन पुत्र, (3). श्रुतदेवा से :- जगृहु नामक पुत्र, (4). श्रुतश्रवा से :- श्रुतश्र।
यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के एक पौत्र का नाम था हैहय। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए। हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे। बाकी सब युद्ध करते हुए भगवान् परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे :- जयध्वज, शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। जयध्वज के तालजंघ नामक एक पुत्र था। तालजंघ के वंशज तालजंघ क्षत्रिय कहलाये। तालजंघ के भी सौ पुत्र थे। उनमें से अधिकांश को राजा सगर ने मार डाला था। तालजंघ के जीवित बचे पुत्रों में एक का नाम था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र के मधु नामक एक पुत्र हुआ। मधु के वंशज माधव कहलाये। मधु के कई पुत्र थे। उनमें से एक का नाम था वृष्णि। वृष्णि के वंशज वाष्र्णेव कहलाये।
यदु के दूसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के बाद उसकी बारहवीं पीढी में विदर्भ नामक एक राजा हुए। विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे। विदर्भ के तीसरे वंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु। बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए। विदर्भ के दुसरे पुत्र क्रथ के कुल में आगे चल सात्वत नामक एक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वत वंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे :- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देववृक्ष, महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। भगवान् श्री कृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था। इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की।
अन्धक के वंशज अन्धक वंशी यादव कहलाये। अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि। वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ। अनु के पुत्र का नाम था, अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ। पुनर्वसु के दो संतानें थीं :- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव, देववर्धन नामक चार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।
सात्वत के पुत्रो से जो वंश परंपरा चली उनमें सर्वाधिक विख्यात वंश का नाम है वृष्णि-वंश। इसमें सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया। वृष्णि के दो रानियाँ थीं :- एक नाम था गांधारी और दूसरी का माद्री। माद्री के एक देवमीढुष नामक एक पुत्र हुआ। देवमीढुष के भी मदिषा और वैश्यवर्णा नाम की दो रानियाँ थी।
देवमीढुष की बड़ी रानी मदिषा के गर्भ दस पुत्र हुए, उनके नाम थे :- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सुजग्य, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। उनमें वसुदेव जी सबसे बड़े थे। वसुदेव के जन्म के समय देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से पुष्प की वर्षा की थी और आनक तथा दुन्दुभी का वादन किया था। इस कारण वसुदेव जी को आनकदुन्दु भी कहा जाता है।
श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है, उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से, देवकी आदि सात पत्नियाँ अन्धक वंश से तथा सुतनु तथा वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली, दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्य वंश से थीं। उग्रसेन के बड़े भाई देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थीं। उन सबका विवाह वसुदेव जी से हुआ था। देवक की छोटी कन्या देवकी के विवाहोपरांत उसका चचेरा भाई कंस जब रथ में बैठा कर, उन्हें घर छोड़ने जा रहा था, तो मार्ग में आकाशवाणी हुई कि कंस जिसे वह बहुत ज्यादा प्यार से ससुराल पहुँचाने जा रहा था, उसी के आठवे पुत्र के हाथों उसकी मृत्यु निश्चित थी। देववाणी सुनकर कंस अत्यंत भयभीत हो गया और वसुदेव तथा देवकी को कारागार में बंद कर दिया। महायशस्वी भगवान् श्री कृष्ण का जन्म इसी कारागार में हुआ था। भगवान् श्री कृष्ण ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया और वसुदेव जी को भगवान् श्री कृष्ण के पिता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। वसुदेव के एक पुत्र का नाम बलराम था। बलराम जी भगवान् श्री कृष्ण के बड़े भाई थे। उनका जन्म वसुदेव की एक अन्य पत्नी रोहिणी के गर्भ से हुआ था। रोहिणी गोकुल में वसुदेव के चचेरे भाई नन्द के यहाँ गुप्त रूप से रह रही थी।
यादवो ने कालान्तर मे अपने केन्द्र दशार्न, अवान्ति, विदर्भ् एवं महिष्मती मे स्थापित कर लिए। बाद मे मथुरा और द्वारिका यादवो की शक्ति के महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली केन्द्र बने। इसके अतिरिक्त शाल्व मे भी यादवों की शाखा स्थापित हो गई। मथुरा महाराजा उग्रसेन के अधीन था और द्वारिका वसुदेव के। महाराजा उग्रसेन का पुत्र कंस था और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण थे।
देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ। पर्जन्य के नन्द सहित नौ पुत्र हुए, जिनके नाम थे :- धरानन्द, ध्रुवनन्द, उपनंद, अभिनंद, सुनंद, कर्मानन्द, धर्मानंद, नन्द और वल्लभ। नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। नन्द और उनकी पत्नी यशोदा ने गोकुल में भगवान् श्री कृष्ण का पालन-पोषण किया। इस कारण वह आज भी परम यशस्वी और श्रद्धेय हैं। वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों चचेरे भाई थे।